आओ इन जीर्ण दरख्तों में थोड़ी-सी जान फूंकते हैं,
इनके अंतस की पीड़ा को स्वर-लय दे आज़ हूँकते हैं।
शायद कोई तो समझ सकेगा, दर्द मौन आशाओं का..
या फ़िर बन जाएगा कोई, अनुगामी अभिलाषाओं का।
भू का कम्पन समझे कोई, आवेश समझ ले अम्बर का..
कुदरत की हर पीड़ा समझे तोड़े तिलिस्म आडम्बर का।
वृक्षों की करुण वेदनाएं, प्यासी सरिताओं के पथ को..
विष युक्त समीरा फैल रही, कोई रोके इसके रथ को।
खग-मृग औ’ कीट पतंगा हो, जलचर या कि उभयचर हो..
सबको जीने का हक सम हो, सब इक दूजे के सहचर हों।
व्यवहार करे न अब व्याकुल, मानव का जीवन के सत को..
इकक्षत्र राज़ है अवनी पर, कोई तो तोड़े इस मत को।
इसलिए स्याह शब्दों में, चिंगारी को सदा छोड़ता हूँ..
मैं अंगारों पर लेखन की, लेकर तलवार दौड़ता हूँ।
आओ-आओ तुम भी आओ, है जो मशाल इन हाथों में..
हिम्मत का वसा उढ़ेलो,
मेरे आग भरे जज्बातों में।
चाहो तो मेरे पथ के अनुगामी, या बनो सारथी तुम..
तुम ही शिव,तुम ही सत्य, तुम्हीं हो देश और भारती तुम।
#देवेन्द्र प्रताप सिंह ‘आग’
परिचय : युवा कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह ‘आग’ ग्राम जहानाबाद(जिला-इटावा)उत्तर प्रदेश में रहते हैं।