बात चार साल पहले की है देश के प्रतिष्ठित अखबार के दफ्तर में हिंदी पर परिचर्चा आयोजित की गई थी। परिचर्चा में प्रतिभागियों में उच्च शिक्षित व उच्च अधिकारियों को आमंत्रित किया गया था। साहित्यकारों की तरह से मुझे बुलाया गया था।
आयोजन आरंभ होने में देर थी। इसलिए सभी प्रतिभागियों में बहस शुरू हो गई वह भी अंग्रेजी में, मैं चुपचाप बैठे सुनता रहा शायद इसलिए कि मुझे उनके जितनी अंग्रेजी नहीं आती थी।
चर्चा आरम्भ हुई मेरे आग्रह पर मुझे अंत में बोलने का मौका मिला। मेरे शब्द थे, बड़ी विडम्बना है मेरे देश में हिन्दी जो हमारी मातृभाषा है उसे एक दिन के चौबीसवें हिस्से में समेट कर फिर से फर्राटे दार अंग्रेजी बोलकर
अंग्रेजीयत झड़ कर अपने आप को हिंदी के पक्षधरों की क्षेणी में सबसे ऊपर रख कर पाश्चात्य संस्कृति को बढ़ावा देने में लग जाते हैं। जहां हमें हिंदी दिवस पर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए बात करनी चाहिए थी वहां पर हम हमारी जिम्मेदारी से बच कर उस भाषा में बात कर रहे हैं जो हमारे ऊपर थोपी हुई है। हम थोड़ा सा समय देकर हिंदी को याद कर इति श्री कर समाचार पत्रों के पन्नों में छाप कर फिर एक साल के लिए दफन कर देने में हिंदी के उत्थान के सपनों में खो जाते हैं और अगले साल फिर शहर के उन बुद्धिजीवियों का हुजूम इक्कठा होकर आयोजन से पहले धड़ल्ले से अंग्रेजी में वार्तालाप हुए अपने आप को हिंदी के ठेकेदार समझने में लगे रहते हैं।
हमारे सभ्य समाज में हिंदी कहां पर है यह जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रातः उठते ही गुड मॉर्निंग से शुरू होकर गुड नाईट पर दिन की समाप्ति होती है तो जरा सोचीये हिंदी हिन्दुस्तान में कहां है। हिंदी का सम्मान बनाए रखने के लिए केवल हिन्दी साहित्यकारों की ही जिम्मेदारी नहीं इसके लिए हिन्दी पाठकों का होना भी जरूरी है, साथ ही साथ समाज के हर वर्ग को हिंदी के लिए अपना दायित्व निभाना होगा। यदि हर व्यक्ति यह ठान ले कि मैंने बोल चाल से लेकर काम काज तक सभी जगह हिन्दी का प्रयोग करना है तो किसी की क्या मजाल कि हिन्दी को दोयम दर्जे में रहना पड़े। एक कहावत है “चार कोस पर पानी बदले कोस कोस पर बानी” परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि हम अपनी मातृभाषा को छोड़कर दूसरे देश की भाषा उधार लेकर मदहोशी के आलम में खोए रहें और हमारी मां हिंदी इतनी पिछड़ जाए कि हम हमारी आने वाली पुस्तों को वसीयत में केवल यही देकर जाएं की हमारे देश भारत की मातृभाषा हिंदी होती थी और इक्कीसवीं सदी के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, लेखकों, इतिहासकारों, समाज के हर वर्ग और सरकार ने अपने फायदे व अंग्रेजी के मोह के कारण आज हिंदी भाषा लुप्त हो गई है।
शुभकरण गौड़
हिसार हरियाणा