हिन्दी ही राष्ट्रभाषा क्यों

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  1. राष्ट्रभाषा जीवंत, स्वायत्त, मानक, उन्नत और समृद्ध होती है और वह समूचे राष्ट्र अथवा देश में सार्वजनिक संप्रेषण-व्यवस्था और कार्य-व्यापार में प्रयुक्त होती है। यदि राष्ट्र बहुभाषी हो तो उसमें अंतर-प्रांतीय मध्यवर्तिनी भाषा के रूप में विभिन्न भाषाभाषी समुदायों के बीच बृहत्तर स्तर पर वह संपर्क भाषा की भूमिका निभाती है। राष्ट्रभाषा का संबंध राष्ट्रीयता से रहता है, क्योंकि राष्ट्रीयता जातीय प्रमाणिकता एवं राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी होती है। राष्ट्रीय चेतना का संबंध सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से होता है। इसका संबंध ‘भूत’ और ‘वर्तमान’ के साथ होता है तथा महान परंपरा के साथ जुड़ा रहता है। वस्तुत: राष्ट्रभाषा राष्ट्र के समाज और संस्कृति के साथ तादात्म्य स्थापित करती है तथा सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा की अभिव्यक्ति के रूप में कार्य करती है। यह भाषा जनता की निजी, सहज और विश्वासमयी भाषा बन जाती है जिसका प्रयोग राष्ट्रपरक कार्यों में चलता रहता है। इसमें राष्ट्रीय प्रवृतियाँ सन्निहित होती हैं, अपने देश की परंपरा और संस्कृति के प्रति प्रेम लगाव होता है और राष्ट्र की एकता के प्रति भावनाएँ होती हैं। इसलिए ऐसी भाषा का अपने देश की भाषा होना अनिवार्य है। राजभाषा के लिए अपने देश की भाषा होना आवश्यक नहीं है। देश के बाहर की भाषा राजभाषा तो हो सकती है, किंतु राष्ट्रभाषा नहीं; जैसे भारत में अंग्रेज़ी राजभाषा का स्थान तो ले सकती है, किंतु राष्ट्रभाषा नहीं।
  2. प्रश्न उठता है कि हिन्दी में ऐसी कौन-सी विशेषता है जिसके कारण उसे राष्ट्रभाषा माना जाना चाहिए। साहित्यिक संदर्भ में हिन्दी का साहित्य समृद्ध और श्रेष्ठ है। संस्कृत, तमिल, बंगला, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तेलुगु, उड़िया आदि भारतीय भाषाओं के समान हिन्दी समृद्ध और जीवंत भाषा तो है ही, साथ ही इसके बोलने वालों की संख्या अन्य भाषाओं की अपेक्षा काफी अधिक हैं। यह केवल राष्ट्रीय स्तर पर बोली नहीं जाती बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बड़ी भाषाओं में गिनी जाती है। वास्तव में हिन्दी अब न तो किसी क्षेत्र-विशेष की भाषा है और न ही किसी एक समुदाय की मातृभाषा। वह तो जन-जन की भाषा हो गई है। वह महाजनपद की भाषा है, पूरे राष्ट्र की भाषा है। समय-समय पर इसके स्वरूप में जो परिवर्तन होते रहे हैं, उनमें वह अपने मानस में विभिन्न भाषाओं और बोलियों के तत्त्वों को संजोती रही है। यह एक ऐसी अजस्र प्रवाहिनी गंगा नदी के समान है जो अन्य भाषाओं एवं बोली रूपी नदियों के सम्मिलन से एक विस्तृत, व्यापक और सुंदर स्रोतस्विनी का रूप धारण करती रही है। हिन्दी मात्र एक भाषा नहीं, अपितु हमारी राष्ट्रीयता है। हमारे जातीय गौरव का प्रतीक है और भारत अर्थात हिंदुस्तान की पहचान है। इसने लोकभाषा खड़ीबोली का आधार ले कर और अन्य बोलियों से सिंचित हो कर भाषा का रूप धारण किया और फिर पूरे भारत की संपर्क भाषा बनी और फिर राजभाषा से गौरवान्वित हुई। इसने राजभाषा से राष्ट्र भाषा का स्वरूप ग्रहण कर लिया है और फिर अपने बढ़ते हुए विकास की यात्रा में यह राष्ट्रभाषा इतनी गतिशील हो गई है कि विश्व भाषा का स्थान लेने में अग्रसर हो गई। वस्तुत: राष्ट्रभाषा में दो लक्षण परस्पर गुंथे होते हैं और वे हैं आंतरिक एकता और बाह्य विशिष्टता। समूचे राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधने की प्रवृति आंतरिक एकता कहलाती है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाह्य रूप में विशिष्टता सिद्ध करने की प्रवृति निहित होती है। बहुभाषी देश में आंतरिक एकता तभी संभव है जब मातृभाषा के साथ-साथ एक अन्य भाषा संपर्क भाषा (lingua franca) के रूप में उभर कर आए और बाह्य विशिष्टता के लिए यह भी आवश्यक है कि संपर्क भाषा के रूप में राजभाषा की पदवी पाने वाली वह भाषा स्वदेशी ही हो। ये दोनों लक्षण हिन्दी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बना देते हैं।
  3. स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान हिन्दी न केवल स्वतंत्रता-सेनानियों की भाषा थी अपितु समस्त जनता ने इसे राष्ट्रभाषा ही माना हुआ था। सच्च मानिए उस काल में हिन्दी ही राष्ट्रभाषा थी। सन् 1906 से सन् 1947 तक अर्थात देश के स्वतंत्र होने तक भारत के हर देशवासी की अभिलाषा थी कि भारत की राष्ट्रीय एकात्माकता के लिए और उसे शक्तिशाली बनाने के लिए एक राष्ट्र-ध्वज, एक राष्ट्रगीत के साथ-साथ एक राष्ट्रभाषा का होना नितांत आवश्यक है। इसी संघर्ष, इन्हीं जन-आकांक्षाओं और भावनाओं का सुफल है संविधान का अनुच्छेद 351। इस अनुच्छेद के पीछे अगर इस महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि को भुला दिया गया तो इसकी सार्थकता और प्रयोजनीयता समाप्त हो जाएगी। इस प्रकार अनुच्छेद 351 से यह आशय निकलता है कि संविधान-निर्माता हिन्दी को मात्र राजभाषा तक सीमित नहीं रखना चाहते थे बल्कि उनका लक्ष्य उसे भविष्य में राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाना था। इस अनुच्छेद में यह भाव भी निहित है कि हिन्दी के विकास का उद्देश्य न केवल भाषायी दृष्टि से एकात्मकता स्थापित करना है बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक तथा भावनात्मक दृष्टि से भी एकात्मकता स्थापित कर समन्वित संस्कृति का निर्माण भी करना है ताकि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का पद मिलने में कोई बाधा न आए।
  4. राष्ट्रभाषा से अभिप्राय समूचे राष्ट्र की भाषा से है। वह समूचे देश में बोली और समझी जाती हो और उसका यह स्वरूप सदैव अक्षुण्ण बना रहता है। यह न तो उत्तर की या दक्षिण की भाषा होती है और न ही पूर्व की या पश्चिम की भाषा होती है। यह तो समूचे देश की भाषा होती है। वह जन-जन की भाषा होती है। विभिन्न भाषा-भाषियों और समुदायों के बीच का काम करती है और उनमें सौहार्द्र और सद्भावना का संबंध बनाए रखती है। समूचे राष्ट्र की सामाजिक-सांस्कृतिक तथा भावनात्मक एकता का निर्माण करती है। इस भाषा की प्रकृति सार्वदेशिकता, सर्वसमावेशिकता, प्राचीन परंपरा, जीवंतता, स्वायत्तता, उदारतावादी दृष्टिकोण, अनेक स्रोतीय शब्द-संवर्धन, मानकीकारण, संप्रेषणीयता एवं बोधगम्यता आदि विशिष्टताओं के कारण अखिल भारतीय हो गई है।
  5. भारत की यह राष्ट्रीय आवश्यकता है कि राष्ट्र की एक राष्ट्रभाषा हो, क्योंकि राष्ट्रभाषा ही देश में राष्ट्रीय चेतना जगा सकती है, राष्ट्रभाषा ही सांस्कृतिक चेतना पैदा कर सकती है, राष्ट्रभाषा ही जन-जन में राष्ट्रवाद की भावना प्रज्वलित कर सकती है। यह भूमिका हिंदी ही निभा सकती है। इसने संविधान की अष्टम अनुसूची में उल्लिखित संस्कृत, बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू आदि सभी भारतीय भाषाओं और अरबी, फारसी, तुर्की, अंग्रेज़ी आदि अनेक विदेशी भाषाओं के शब्दों को अपना कर और आत्मसात् कर अपना सर्वसमावेशी रूप धारण कर लिया है। इस राष्ट्रभाषा को सभी भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं का भी हिन्दी के साथ आत्मसातीकरण एवं समन्वय हो गया है और यह समृद्ध एवं विकसित भाषा बन गई है। शब्द, भाव, रूप और शैली की दृष्टि से यह भाषा अखिल भारतीय हिन्दी हो गई है। इसके व्यापक प्रयोग के कारण इसके कई रूपों और शैलियों का उद्भव हो गया है। यह भाषा जनपदीय संदर्भ की भाषा से उठ कर राष्ट्रीय संदर्भ की भाषा बन गई है और वैश्विक संदर्भ की भाषा बनने की ओर पूर्णतया अग्रसर है। इस लिए अब समय आ गया है कि हिन्दी को केवल राजभाषा तक सीमित न रख उसे राष्ट्रभाषा के पद पर गौरवान्वित किया जाए।

हिन्दी ही राष्ट्रभाषा क्यों

प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी

  1. राष्ट्रभाषा जीवंत, स्वायत्त, मानक, उन्नत और समृद्ध होती है और वह समूचे राष्ट्र अथवा देश में सार्वजनिक संप्रेषण-व्यवस्था और कार्य-व्यापार में प्रयुक्त होती है। यदि राष्ट्र बहुभाषी हो तो उसमें अंतर-प्रांतीय मध्यवर्तिनी भाषा के रूप में विभिन्न भाषाभाषी समुदायों के बीच बृहत्तर स्तर पर वह संपर्क भाषा की भूमिका निभाती है। राष्ट्रभाषा का संबंध राष्ट्रीयता से रहता है, क्योंकि राष्ट्रीयता जातीय प्रमाणिकता एवं राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी होती है। राष्ट्रीय चेतना का संबंध सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से होता है। इसका संबंध ‘भूत’ और ‘वर्तमान’ के साथ होता है तथा महान परंपरा के साथ जुड़ा रहता है। वस्तुत: राष्ट्रभाषा राष्ट्र के समाज और संस्कृति के साथ तादात्म्य स्थापित करती है तथा सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा की अभिव्यक्ति के रूप में कार्य करती है। यह भाषा जनता की निजी, सहज और विश्वासमयी भाषा बन जाती है जिसका प्रयोग राष्ट्रपरक कार्यों में चलता रहता है। इसमें राष्ट्रीय प्रवृतियाँ सन्निहित होती हैं, अपने देश की परंपरा और संस्कृति के प्रति प्रेम लगाव होता है और राष्ट्र की एकता के प्रति भावनाएँ होती हैं। इसलिए ऐसी भाषा का अपने देश की भाषा होना अनिवार्य है। राजभाषा के लिए अपने देश की भाषा होना आवश्यक नहीं है। देश के बाहर की भाषा राजभाषा तो हो सकती है, किंतु राष्ट्रभाषा नहीं; जैसे भारत में अंग्रेज़ी राजभाषा का स्थान तो ले सकती है, किंतु राष्ट्रभाषा नहीं।
  2. प्रश्न उठता है कि हिन्दी में ऐसी कौन-सी विशेषता है जिसके कारण उसे राष्ट्रभाषा माना जाना चाहिए। साहित्यिक संदर्भ में हिन्दी का साहित्य समृद्ध और श्रेष्ठ है। संस्कृत, तमिल, बंगला, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तेलुगु, उड़िया आदि भारतीय भाषाओं के समान हिन्दी समृद्ध और जीवंत भाषा तो है ही, साथ ही इसके बोलने वालों की संख्या अन्य भाषाओं की अपेक्षा काफी अधिक हैं। यह केवल राष्ट्रीय स्तर पर बोली नहीं जाती बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बड़ी भाषाओं में गिनी जाती है। वास्तव में हिन्दी अब न तो किसी क्षेत्र-विशेष की भाषा है और न ही किसी एक समुदाय की मातृभाषा। वह तो जन-जन की भाषा हो गई है। वह महाजनपद की भाषा है, पूरे राष्ट्र की भाषा है। समय-समय पर इसके स्वरूप में जो परिवर्तन होते रहे हैं, उनमें वह अपने मानस में विभिन्न भाषाओं और बोलियों के तत्त्वों को संजोती रही है। यह एक ऐसी अजस्र प्रवाहिनी गंगा नदी के समान है जो अन्य भाषाओं एवं बोली रूपी नदियों के सम्मिलन से एक विस्तृत, व्यापक और सुंदर स्रोतस्विनी का रूप धारण करती रही है। हिन्दी मात्र एक भाषा नहीं, अपितु हमारी राष्ट्रीयता है। हमारे जातीय गौरव का प्रतीक है और भारत अर्थात हिंदुस्तान की पहचान है। इसने लोकभाषा खड़ीबोली का आधार ले कर और अन्य बोलियों से सिंचित हो कर भाषा का रूप धारण किया और फिर पूरे भारत की संपर्क भाषा बनी और फिर राजभाषा से गौरवान्वित हुई। इसने राजभाषा से राष्ट्र भाषा का स्वरूप ग्रहण कर लिया है और फिर अपने बढ़ते हुए विकास की यात्रा में यह राष्ट्रभाषा इतनी गतिशील हो गई है कि विश्व भाषा का स्थान लेने में अग्रसर हो गई। वस्तुत: राष्ट्रभाषा में दो लक्षण परस्पर गुंथे होते हैं और वे हैं आंतरिक एकता और बाह्य विशिष्टता। समूचे राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधने की प्रवृति आंतरिक एकता कहलाती है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाह्य रूप में विशिष्टता सिद्ध करने की प्रवृति निहित होती है। बहुभाषी देश में आंतरिक एकता तभी संभव है जब मातृभाषा के साथ-साथ एक अन्य भाषा संपर्क भाषा (lingua franca) के रूप में उभर कर आए और बाह्य विशिष्टता के लिए यह भी आवश्यक है कि संपर्क भाषा के रूप में राजभाषा की पदवी पाने वाली वह भाषा स्वदेशी ही हो। ये दोनों लक्षण हिन्दी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बना देते हैं।
  3. स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान हिन्दी न केवल स्वतंत्रता-सेनानियों की भाषा थी अपितु समस्त जनता ने इसे राष्ट्रभाषा ही माना हुआ था। सच्च मानिए उस काल में हिन्दी ही राष्ट्रभाषा थी। सन् 1906 से सन् 1947 तक अर्थात देश के स्वतंत्र होने तक भारत के हर देशवासी की अभिलाषा थी कि भारत की राष्ट्रीय एकात्माकता के लिए और उसे शक्तिशाली बनाने के लिए एक राष्ट्र-ध्वज, एक राष्ट्रगीत के साथ-साथ एक राष्ट्रभाषा का होना नितांत आवश्यक है। इसी संघर्ष, इन्हीं जन-आकांक्षाओं और भावनाओं का सुफल है संविधान का अनुच्छेद 351। इस अनुच्छेद के पीछे अगर इस महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि को भुला दिया गया तो इसकी सार्थकता और प्रयोजनीयता समाप्त हो जाएगी। इस प्रकार अनुच्छेद 351 से यह आशय निकलता है कि संविधान-निर्माता हिन्दी को मात्र राजभाषा तक सीमित नहीं रखना चाहते थे बल्कि उनका लक्ष्य उसे भविष्य में राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाना था। इस अनुच्छेद में यह भाव भी निहित है कि हिन्दी के विकास का उद्देश्य न केवल भाषायी दृष्टि से एकात्मकता स्थापित करना है बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक तथा भावनात्मक दृष्टि से भी एकात्मकता स्थापित कर समन्वित संस्कृति का निर्माण भी करना है ताकि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का पद मिलने में कोई बाधा न आए।
  4. राष्ट्रभाषा से अभिप्राय समूचे राष्ट्र की भाषा से है। वह समूचे देश में बोली और समझी जाती हो और उसका यह स्वरूप सदैव अक्षुण्ण बना रहता है। यह न तो उत्तर की या दक्षिण की भाषा होती है और न ही पूर्व की या पश्चिम की भाषा होती है। यह तो समूचे देश की भाषा होती है। वह जन-जन की भाषा होती है। विभिन्न भाषा-भाषियों और समुदायों के बीच का काम करती है और उनमें सौहार्द्र और सद्भावना का संबंध बनाए रखती है। समूचे राष्ट्र की सामाजिक-सांस्कृतिक तथा भावनात्मक एकता का निर्माण करती है। इस भाषा की प्रकृति सार्वदेशिकता, सर्वसमावेशिकता, प्राचीन परंपरा, जीवंतता, स्वायत्तता, उदारतावादी दृष्टिकोण, अनेक स्रोतीय शब्द-संवर्धन, मानकीकारण, संप्रेषणीयता एवं बोधगम्यता आदि विशिष्टताओं के कारण अखिल भारतीय हो गई है।
  5. भारत की यह राष्ट्रीय आवश्यकता है कि राष्ट्र की एक राष्ट्रभाषा हो, क्योंकि राष्ट्रभाषा ही देश में राष्ट्रीय चेतना जगा सकती है, राष्ट्रभाषा ही सांस्कृतिक चेतना पैदा कर सकती है, राष्ट्रभाषा ही जन-जन में राष्ट्रवाद की भावना प्रज्वलित कर सकती है। यह भूमिका हिंदी ही निभा सकती है। इसने संविधान की अष्टम अनुसूची में उल्लिखित संस्कृत, बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू आदि सभी भारतीय भाषाओं और अरबी, फारसी, तुर्की, अंग्रेज़ी आदि अनेक विदेशी भाषाओं के शब्दों को अपना कर और आत्मसात् कर अपना सर्वसमावेशी रूप धारण कर लिया है। इस राष्ट्रभाषा को सभी भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं का भी हिन्दी के साथ आत्मसातीकरण एवं समन्वय हो गया है और यह समृद्ध एवं विकसित भाषा बन गई है। शब्द, भाव, रूप और शैली की दृष्टि से यह भाषा अखिल भारतीय हिन्दी हो गई है। इसके व्यापक प्रयोग के कारण इसके कई रूपों और शैलियों का उद्भव हो गया है। यह भाषा जनपदीय संदर्भ की भाषा से उठ कर राष्ट्रीय संदर्भ की भाषा बन गई है और वैश्विक संदर्भ की भाषा बनने की ओर पूर्णतया अग्रसर है। इस लिए अब समय आ गया है कि हिन्दी को केवल राजभाषा तक सीमित न रख उसे राष्ट्रभाषा के पद पर गौरवान्वित किया जाए।

प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी

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संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।