निश्संदेह रामायण और महाभारत पुराने दिनों की ही नहीं बल्कि त्रेता और द्वापर युग की याद ताजा करवा रहे हैं।जिसमें बताया जा रहा है कि वे युग भी कलयुग की भांति पाप से अछूते नहीं थे।
जैसे त्रेता युग के सीताहरण और धोबी के कहने पर सीता त्याग का दृश्य पीड़ा-प्रताड़ना को व्यक्त करता है।यही नहीं समस्त ऋषियों-मुणियों सहित राजसभा के उच्च पदाधिकारियों द्वारा चुप्पी साधना घोर अन्याय का समर्थन करता है।जो नकारात्मक ऊर्जा ही प्रवाहित करते हुए उन युगों की कलंकित यादों को ताजा करता है।
उल्लेखनीय है कि द्वापर युग की तथाकथित महा शक्तिमानों की राजसभा में जुआ खेलना उचित था। जिसमें धर्मपत्नी को दाव पर लगाना गलत नहीं था।उसी राजसभा का शक्तिशाली युवराज द्रौपदी को उसके बाल पकड़ कर खींच लाने का आदेश देने में सक्षम था।वह इतना साहसी था कि 'द्रौपदी' को 'नग्न' देखने के लिए अपने छोटे भाई को उसकी साड़ी वीरों की भरी सभा में उतारने का आदेश देने का साहस रखता था।जिस पर पूरी राजसभा में दासी पुत्र के अलावा कोई विरोध नहीं कर सका था।जिसमें इस बात का ज्ञान भी बांटा गया है कि दासी भोग विलास के साधन के अलावा कोई मान-सम्मान नहीं रखती थी।इसलिए वही गलती यदि वर्तमान के युग अर्थात कलयुग में की होती तो उस युवराज को निश्संदेह फांसी दे दी जाती।
ऊपरोक्त निंदनीय दृश्य आज भी नकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित करते हुए उन युगों की कलंकित यादों को ताजा करते हुए शर्मसार करते हैं।
इंदु भूषण बाली