न जाने कहाँ
खो गया वह प्यारा
चांद का टुकड़ा,
जिसे मैं दिन और रात
अपलक निहारता
रहता था!
जिसके बिना मुझे
नहीं मिलता था
सुकून एक पल का।
आज मुझे फीका-फीका
सा लग रहा है चांद भी।
और धीरे-धीरे घट रहा है
अमावस की तरह
और लगता है
कि लौटकर कभी नहीं आएगा यह
ये चांद तो 15 दिन बाद दिखेगा पूर्णिमा को
लेकिन न जाने मेरा वो चाँद कब आएगा
मुझे सुकून देने के लिए।
……..आज भी उम्मीद है
उस चाँद के आने की।
अबकी जब आएगा
वह
मैं उसे कर लूंगा समाहित
स्वयं में,
कभी भी न
फिर
पृथक होने के लिए ।
*कवि कृष्ण कुमार सैनी”राज”
दौसा,राजस्थान