दशहरे और दीपावली की छुट्टियां खत्म हुई हैं और अब बच्चे अपने स्कूल कॉलेज या जहां वे काम करते हैं वहां जाने की तैयारी में हैं…कुछ तो पर्व समाप्त होने के दिन से ही निकलने की तैयारी में लग जाते हैं… रिजर्वेशन चार महीने पहले जो ले रखी है…
उल्लास के बाद अचानक का यह सन्नाटा एक अजीब सा खालीपन… एक अजीब सी टीस छोड़ जाता है…लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि मां बाप और परिवार जनों से वियोग की कीमत पर ही उन्हें आगे बढ़ना है…अपना भविष्य संवारना है…यह वियोग ही उनकी उन्नति प्रगति की पहली शर्त है शायद…
इन घड़ियों में बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट पर अपने जिगर के टुकड़े को विदा करते हुए कितने दिल बोझिल हुए होंगे… कितनी आँखें दूसरों से नजरें बचाकर रोई होंगी…कितनों ने मुस्कुराने का असफल प्रयास किया होगा…
स्टेशन पर मम्मी पापा की वही हमेशा वाली बातें हुई होंगी – बेटा, पर्स और आई कार्ड रख लिया ना… खाना खा लेना समय से… घर का खाना रात तक चल जाएगा… कल दिन का खाना पैंट्री से ले लेना… पानी के लिए स्टेशन पर मत उतरना… पानी का बोतल ट्रेन में ही खरीद लेना…डब्बे में जो बेसन के लड्डू दिए हैं वो घर के बने हैं…शुद्ध घी के… खुद खाना… सब का सब दोस्तों में मत बांट देना…सुबह देर तक सोने की आदत ठीक नहीं…थोड़ा रूटीन बदलना…खांसी आ रही है अभी…पानी गर्म करके पीना… रात में दूध पीना मत भूलना…ट्रेन पहुंचने के आधे घण्टे पहले का अलार्म लगा लेना…ट्रेन में कहीं सोये रह गए तो…अगली बार जरा लंबी छुट्टी लेकर आना… पहुंचते ही फोन करना…
फोन करने का वादा बच्चों से लेते हैं लेकिन पहुंचने से पहले ही इतनी बार फोन करते हैं कि आसपास के मुसाफिर भी परेशान हो जाते हैं…यह भी नहीं सोचते कि बच्चा गाड़ी से उतर रहा होगा या कहीं रास्ते में ट्रैफिक में फंसा होगा…
लेकिन इन सब के बीच कभी कभी बच्चे मम्मी पापा के इन जज़बातों और बनावटी मुस्कुराहटों के पीछे छिपे दर्द को भांप लेते हैं… वे खुद सामान्य बनने की कोशिश करते रहते हैं ताकि हालात काबू में रहे और विदाई का कठिन समय जल्द बीत जाय…
ट्रैन, बस और एरोप्लेन धीरे धीरे आगे बढ़ जाते हैं और अपने पीछे छोड़ जाते हैं एक गुबार… आँखों में नमी के साथ…
अभी तक ऐसी कोई मशीन, कोई वेबसाइट या कोई एजेंसी ईजाद नहीं हुई जो उत्सव के बाद के मां बाप के इस भाव, इस पीड़ा, इस चिंता का आकलन कर सके… इसका लेखा जोखा बता सके…
मां बाप तमाम उम्र अपनी जिम्मेदारियों से दो चार होते रहते हैं लेकिन उनका दिल दूर बसे बच्चों के साथ ही धड़कता रहता है…
इस वियोग की पीड़ा और उनके फिर आने के इंतजार के बीच माँ बाप की टिक टिक जिंदगी यूं ही चलती रहती है …आँखों में कुछ सपने संजोये…दिल में हसरतों के कुछ दीप जलाये…
बच्चों की शादी के बाद खास तौर पर उनकी जिंदगी में बदलाव आ जाता है… बच्चे बड़े हो जाते हैं पर पापा मम्मी बड़े नहीं होते… खास कर पापा तो बिल्कुल भी नहीं …बल्कि उम्र होने के साथ पापा कुछ ज्यादा ही बच्चा बन जाते हैं…कुछ ज्यादा ही अधीर होने लगते हैं…
देखते देखते बच्चे परिपक्व और जिम्मेदार भी बन जाते हैं पर पापा रहते हैं वैसे के वैसे ही…
#डॉ. स्वयंभू शलभ
परिचय : डॉ. स्वयंभू शलभ का निवास बिहार राज्य के रक्सौल शहर में हैl आपकी जन्मतिथि-२ नवम्बर १९६३ तथा जन्म स्थान-रक्सौल (बिहार)है l शिक्षा एमएससी(फिजिक्स) तथा पीएच-डी. है l कार्यक्षेत्र-प्राध्यापक (भौतिक विज्ञान) हैं l शहर-रक्सौल राज्य-बिहार है l सामाजिक क्षेत्र में भारत नेपाल के इस सीमा क्षेत्र के सर्वांगीण विकास के लिए कई मुद्दे सरकार के सामने रखे,जिन पर प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री कार्यालय सहित विभिन्न मंत्रालयों ने संज्ञान लिया,संबंधित विभागों ने आवश्यक कदम उठाए हैं। आपकी विधा-कविता,गीत,ग़ज़ल,कहानी,लेख और संस्मरण है। ब्लॉग पर भी सक्रिय हैं l ‘प्राणों के साज पर’, ‘अंतर्बोध’, ‘श्रृंखला के खंड’ (कविता संग्रह) एवं ‘अनुभूति दंश’ (गजल संग्रह) प्रकाशित तथा ‘डॉ.हरिवंशराय बच्चन के 38 पत्र डॉ. शलभ के नाम’ (पत्र संग्रह) एवं ‘कोई एक आशियां’ (कहानी संग्रह) प्रकाशनाधीन हैं l कुछ पत्रिकाओं का संपादन भी किया है l भूटान में अखिल भारतीय ब्याहुत महासभा के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में विज्ञान और साहित्य की उपलब्धियों के लिए सम्मानित किए गए हैं। वार्षिक पत्रिका के प्रधान संपादक के रूप में उत्कृष्ट सेवा कार्य के लिए दिसम्बर में जगतगुरु वामाचार्य‘पीठाधीश पुरस्कार’ और सामाजिक क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए अखिल भारतीय वियाहुत कलवार महासभा द्वारा भी सम्मानित किए गए हैं तो नेपाल में दीर्घ सेवा पदक से भी सम्मानित हुए हैं l साहित्य के प्रभाव से सामाजिक परिवर्तन की दिशा में कई उल्लेखनीय कार्य किए हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-जीवन का अध्ययन है। यह जिंदगी के दर्द,कड़वाहट और विषमताओं को समझने के साथ प्रेम,सौंदर्य और संवेदना है वहां तक पहुंचने का एक जरिया है।