नीरज त्यागीग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश )
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कभी शौर सा था उस खिड़की पर,
जहाँ आज सन्नाटा सा पसरा है ।
वो अलमारी आज मौन सी खड़ी है ,
जिनमे कभी बड़ी बहन और बड़े भाई
की किताबो से रोज मेरी किताबो की
उन्हें जगह ना देने की लड़ाई सी रहती थी।
वो दोस्त भी भी अब सब बिछड़ गए है,
जिनसे आगे रहने के लिए चोरी छुपकर
पढ़कर भी उनसे ये कह दिया करते थे,
ये तो आने वाला ही नही है परीक्षा में।
जीवन की भागदौड़ में आगे बढ़ने की
हौड़ में,सारे रिश्ते छूट गए,जो हो सकते
दोस्त करीब वो दोस्त भी सारे छूट गए।
आज ना वो किताबे है,ना ही अलमारी
में कोई शौर है,हर कोना अब मौन है ।
हाँ सचमुच आज मैं बहुत खुश हूँ।
क्या सचमुच यही खुशी है?????
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