ज्योत से ज्योत मिले,
सुन सखी..
आज मैं तुझसे ही सम्बोधन करती हूं,
अपने मन के अंजुली भर भावों को तुझको ही अर्पण करती हूं।
हर बार इन पुरूष पुंज को कहना जरुरी तो नहीं,
हर भाव को ग़ज़ल या गीत में ढालकर इनको बताना अब रुचता नहीं।
अपने संवेगों को,सहज आवेगों को,
क्यों न तुझसे बांट लूं,
अपने सुख–दुखानुभूति के,
निज अनुभूत क्षणों को तुझसे ही आत्मसात् कर लूं।
सुन सखी सुन,
मैं भी आई हूं महावर लगे पैरों से इस घर में,
रुनझुन करती पायल से..
एक सुंदर गीत का प्रयोजन करते हुए,
लाल-लाल कुंकुम के पैरों के..
निशान छोड़ते हुए तुम्हारी तरहा।
जैसे तुम भी कभी आई हो,
मेरी तरहा तुमने भी घूंघट की ओट में..पलकें झुकाए
ढेरों ख्वाबों के साथ,
प्रवेश किया है इस घर में।
आज मैं आई हूं तुम्हारी तरहा,
इस अनजान डगर पर..
अनजान राही का हाथ पकड़कर,
आशा और विश्वास के साथ।
फिर क्यों तुम वो समय बिसरा रही हो,
मुझे बंधनों और रिवाजों में बांध रही हो..?
रौब और अनुशासन में जकड़ रही हो,
तुमने भी तो मुक्त आकाश में उड़ना चाहा था..
ये घूंघट उठाकर इठलाती मस्त हवाओं में सांस लेना चाहा था,
तुम भी तो तितली की तरहा इधर- उधर विचरण करना चाहती थी..
तुम मुझ जैसी ही तो थी।
फिर क्यों?
मेरे चेहरे को घूंघट से ढंककर मेरी, मुस्कान को गुम कर देना चाहती हो..
तुम क्यों लेती हो इम्तहान मेरा ?
क्यों तौलती हो मुझे दौलत से,
तुम प्रतियोगिता से नहीं..
प्रेम और स्नेह से सींच लो मुझे,
दौलत से नहीं दिल से तौल लो मुझे।
जज्बात से जान लो मुझे,
मैं भी तुम्हारी तरहा..
मां,भाभी,चाची,मामी बनकर आई हूं,
और आज सासू मां बनने की दहलीज पर खड़ी हूं..
तुमसे सम्मान पाकर,सम्मान ही तो लौटाऊंगी।
आने वाली पीढ़ी को प्यार और स्नेह का मोल
तभी तो समझा पाऊंगी।
तुमने भी तो भोगी है वो जन्म देने की पीड़ा,वो दर्द..
तुमने भी तो उठाया है यशोदा बनकर वो आनन्द,
वो अहसास आज मेरे पास है..
तो फिर मैं और तुम विलग कहां?
एक ही तो हैं,
तो आओ सखी-
हम नवकिरण का आगाज करें।
पुष्प-सा हमारा मन महके,
और चंदन-सी ह्दय की सुगंध फैले..
तुलसी-सा पवित्र घर हो,
और मोगरे-सी खुशबू-सा सुंदर मन हो।
मन के इस नील गगन में,
प्यार का अमृत बरसे..
तुम बनो मेरी मार्गदर्शक,
कभी मैं तुम्हारी पथ प्रदर्शक..
हमारी अनुभूति का अहसास गहरा हो,
हम चलें साथ-साथ मिलकर..
बनाएं मिलकर एक निश्चल संसार।
कल्पना में हो ममता का लहराता आंचल,
पुरुषों से विलग हो ये प्रसंग..
फिर कोई न कहे-नारी ही नारी की है दुश्मन,
हम हैं कहीं कठिन,कहीं सरल..
हम तो हैं पुष्प-सी महक,
स्वर-सी सुमधुर,कस्तूरी की गंध..
और तुलसी-सी पावन।
#सुषमा व्यास
परिचय : श्रीमती सुषमा व्यास( सुष ‘राजनिधि’) ने हिन्दी साहित्य में एमए किया हुआ है और मौलिक रचनाकार हैं।आप इंदौर में ही रहती हैं तथा इंदौर लेखिका संघ की सदस्य भी हैं।
उतकृष्ट रचना!!!!! प्रत्येक नारी,,,या नारी के हर रूप मे ऐसे भाव होने चाहिए तभी समाज मे नारी का विकास होगा नारी का सम्मान होगा।
बेहतरीन
Bahut sunder rachna