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अनुबंध और तमाम शर्तों के बाद भारत के नीले आकाश में गुलाबी गुलाल के बादलों ने 15 अगस्त 1947 की सुबह को अपने आलिंगन में ले लिया था, यह वही समय रहा जब लाल किले ने तिरंगे को देखा होगा, शायद भारत के भाग्य में अर्द्ध रात्रि को मिली रहस्यमयी आज़ादी ही लिखी थी, जिससे विभाजन का तिलक लगाकर हम आज भी स्वंय को स्वतंत्र कह रहे है जबकि हम तो अनुबंध की शर्तों पर चल रहे है जिसे पुलिसिया शब्दावली में जमानत पर रिहा होना कहा जाता है|
बहरहाल जैसी भी मिली, मिली तो स्वतंत्रता ही है जिसके बूते पर आज हम जीवित है और स्वच्छंद आजा़दी की सांस ले पा रहे है|
पर आजा़दी हमें जिन बलिदानों की बलिवेदी पर रक्तअभिषेक करने के उपरांत मिली है, वर्तमान पीढ़ी उसे सहेजने में भी सक्षम नज़र नहीं आ रही है|
एक गीत की पंक्तियाँ इसी भाव को दर्शाती है जिसमें कहा था *’शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेलें, वतन पर मरने वालो का यही बाकी निशां होगा’*
सच ही तो है, हम इससे ज्यादा और कर भी क्या रहें है? क्या हमने उन बलिदानियों के मंतव्यानुसार इस राष्ट्र की आधारभूत संरचना बनाई?
क्या कभी जाना कि हमें आजा़दी की आवश्यकता क्यों थी?
किन जरूरी सुविधाओं की प्राप्ति के लिए स्वच्छन्दता का आसमान अपेक्षित था?
क्या ऐसा था जो बिना आजाद हुए देश के विकास में बाधक था?
रोटी, कपड़ा और मकान तो देश में आजादी के पहले भी उपलब्ध रहे, कानून तब भी अंग्रेजियत प्रभावी था, आज भी वही है| पुलिस और न्यायव्यवस्था तो पहले भी थी, आज भी है | परन्तु हमने कभी विचार ही नहीं किया कि हमारे पूर्वजों ने आजादी की मांग क्यों की थी? क्या आजाद होने से गरीबी का उन्मूलन हो जाता? क्या आजाद होने से रोजगार या विकास के अवसर बढ़ जाने थे?
हमारे अग्रजों को आजादी इसलिए तो नहीं चाहिए थी|
आजादी असल मायने में हमें रोटी-कपड़ा-मकान के लिए नहीं बल्कि लोकतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक थी, ऐसा लोकतंत्र जो कागजों में न रहकर आमजीवन से जुड़ा हो, *खम्बों पर टिका हुआ लोकतंत्र न तब अपेक्षित था, न आज है|*
लोक शासन के पहले मूलभूत सुविधाओं को आजाद करवाना होगा, भाषाई स्वतंत्रता हो, जातिगत भेद से ऊपर भारतीयता हो, क्षेत्रवाद का समूल नाश हो, यहाँ तक की जनता जितनी अंग्रेजी राज में त्राहिमाम नहीं कह रही होगी, उससे कही ज्यादा आज कह रही है|
7 दशक से अधिक समय बीत गया भारत तो स्वतंत्र हुए,जिसमे 6 दशक तो लगभग एक ही राजनैतिक दल का शासन रहा, जो कहते रहे कि उनके पूर्वजों ने राष्ट्र के लिए परिवार समर्पित किया, आजादी की लड़ाई लड़ी, पर वे भी नाकामयाब रहे भारत को पूर्ण स्वतंत्र करवाने में, उसके बाद 2014 में बरसों बाद आई पूर्ण बहुमत की सरकार भी आजादी की असल मंशा को भाँपने में असक्षम रही |
*’न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी’* की तर्ज पर देश की बौद्धिक विरासत को कंगाल करती भारतीय राजनीति ने राष्ट्र को असल मायने में आज भी गुलाम बनाए रखा है|
कभी भाषा की गुलामी तो कभी उद्योगपतियों या कहें पूंजीपतियों की गुलामी, कभी सामंतो की सरकार,तो कभी अफसरशाही के आगे नाक रगड़ती पीढ़ियों की गुलामी| हद तो तब हो जाती है, जब देश का कर्मठ मतदाता रामदीन ही अपने कर्तव्यों के निर्वहन के बाद जब व्यवस्था से अपने अधिकार मांगता है तो उसे ऐसे दुत्कारा जाता है या रिश्वत के लिए या सूद के लिए ऐसे प्रताड़ित किया जाता है जैसे अंग्रेजों के जमाने में भारत माता की जय कहने पर काला पानी की सजा मुकर्रर कर दी जाती हो|
शिक्षा, चिकित्सा और न्याय जैसी मूलभूत सेवाएं जब व्यवसाय बनकर इतराती है और गरीब जनता पर शासन की नाकामियों की जद से निकल कर कहर बरपाती है, तब लगता है *आजादी अभी अधूरी है| सपने सच होने बाकी, रावी की शपथ न पूरी है*
कविमना,भारत रत्न व पूर्व प्रधानमंत्री पं अटल बिहारी वाजपेयी जी की पंक्तियाँ यही कह रही है कि *’कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी पानी सहते है, उनसे पूछो दिन पंद्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं?’*
सच ही तो है, सात दशक बीत जाने के बाद भी यदि आजादी भारत के दबे-कुचले, उपेक्षित वर्ग तक न पहुँच पाई हो तो ऐसी आजा़दी पर अभिमान तो हो सकता है, पर वो भी भरे हुए मन से|
*सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी*
समय का पहिया अपनी गति से चल रहा है, भारत माँ के सवा सौ करोड़ पुत्र-पुत्रियों से यही अपेक्षा भी की जा रही है कि अब भी जाग जाओ, मातृभूमि की सेवा के लिए जरूरी नहीं की सीमा पर जा कर युद्ध ही किया जाए, बल्कि देश के अंदर रहकर भी बलिदानियों की इच्छा अनुरुप भारत को स्वाधीन किया जाए, विदेशी भाषा की गुलामी समाप्त की जाए, शिक्षा व्यवस्था को पुनर्जीवित किया जाए, गुलाम शिक्षा को आजाद करवाया जाए, बेहतर स्वास्थ का लाभ आम आदमी तक पहुँचे इसलिए चिकित्सा को व्यापार बनने से रोका जाए | साफ तौर पर शिक्षा और चिकित्सा के व्यावसायीकरण के बंधन से मुक्त करवाया जाए | शोषितों की पहुँच तक कानून उपलब्ध करवाया जाए, तब कहीं जा कर भारत में लोकतंत्र की स्थापना होगी, और भारत आजाद कहलाएगा| इन सबके बिना तो दोषारोपण के इस दौर में आजादी केवल कल और आज के बीच झूलती ही नज़र आएगी|
#डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’
परिचय : डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ इन्दौर (म.प्र.) से खबर हलचल न्यूज के सम्पादक हैं, और पत्रकार होने के साथ-साथ शायर और स्तंभकार भी हैं। श्री जैन ने आंचलिक पत्रकारों पर ‘मेरे आंचलिक पत्रकार’ एवं साझा काव्य संग्रह ‘मातृभाषा एक युगमंच’ आदि पुस्तक भी लिखी है। अविचल ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में स्त्री की पीड़ा, परिवेश का साहस और व्यवस्थाओं के खिलाफ तंज़ को बखूबी उकेरा है। इन्होंने आलेखों में ज़्यादातर पत्रकारिता का आधार आंचलिक पत्रकारिता को ही ज़्यादा लिखा है। यह मध्यप्रदेश के धार जिले की कुक्षी तहसील में पले-बढ़े और इंदौर को अपना कर्म क्षेत्र बनाया है। बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग (कम्प्यूटर साइंस) करने के बाद एमबीए और एम.जे.की डिग्री हासिल की एवं ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियों’ पर शोध किया है। कई पत्रकार संगठनों में राष्ट्रीय स्तर की ज़िम्मेदारियों से नवाज़े जा चुके अर्पण जैन ‘अविचल’ भारत के २१ राज्यों में अपनी टीम का संचालन कर रहे हैं। पत्रकारों के लिए बनाया गया भारत का पहला सोशल नेटवर्क और पत्रकारिता का विकीपीडिया (www.IndianReporters.com) भी जैन द्वारा ही संचालित किया जा रहा है।
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