ले चलो ऐ ‘अश्व’ मुझको उस धरा के छोर,
पाप रहित क्षेत्र हो; तम न हो; हो भोर।
भ्रमण करता ‘क्षेत्र’ में; गर्दभ-मति लिए हुए,
पशु,प्रेत बन भटक रहा अज्ञात; शून्य से परे।
देखता हूँ ‘मन की हलचल’ लोचन का प्रकाश ले,
कह न ‘बधिर’; सुन सका न-गूँज अन्तर्रात्मा की।
था विचार चल पडूँ-‘सत्य मार्ग ओर’;
है ‘परिश्रम’; चल पड़ा मैं ‘तम मार्ग ओर’
तम में आकर सब ही ‘गुह्यतम’; खुल सका न ‘भेद’
खुद को खोया; अश्व खोया; छूट गई थी डोर।
तम में खा-खा स्पंद; ‘नव-ज्योति’ में आया;
‘नव-ज्योति’ में आया और अश्व को पाया।
बोला उससे-‘अश्व मुझको! ले चल नगर ओर’;
‘नगर’ में आया; ‘चित्र’ विचित्र ही पाया।
मानव ‘मशीन’! या ’मशीन’ मानव’!.. रहस्य ही रहा।
बम ‘मनुज! या ‘मनुज ‘बम’!..कुछ समझ न यह सका।
भू,वात, शून्य ‘उच्छ्वास’ हैं भरतें;
‘विज्ञान’ का तूने ‘प्राचीर’ बनाया;
तोड़ दे प्राचीर को वो श्वांस भरेंगे,
त्यज मोह; राह ये छोड़; ‘ध्वंस’ करेंगे।
ले चलो ऐ अश्व मुझको ‘वन-हरित’ उस ओर,
‘विपिन’ में आया; मन ‘शांति’ को पाया;
‘विहग-कलरव’ छोर-छोर ‘गूँज’ है मचतीं,
बिल्लियों को बिल्लियां ही नोंचती रहतीं।
‘सर्प’ जैसे ‘शशक’ का अनुसरण करता;
‘शशक’ गर्दन मोड़ फिर-फिर दौड़ता रहता
वृक्ष से जा भिड़ा; फँस गया ‘झाड़ियों’ में;
कंटकों में पैर थें; शिकार बन गया।
‘सर्प’ तो यहां भी हैं; ‘गेंडुरी मारे हुए,
लगता करते ‘अनुसरण’; ‘शिकार’ करेंगे।
‘सर्प’ अतिथि बनकर आतें; हैं ‘अतिथि-सत्कार’ करवातें,
बनकर ‘स्वजन’; डसकर ‘स्वजन’ राज करेंगे।
ले चलो ऐ अश्व! मुझको उन युगों की ओर,
जहां ‘श्री रामचंद्र’ और थे ‘माखन चोर’।
‘त्रेतायुग’ में शांति है; पशुओं में मित्रता है,
‘अनुज’ यहाँ ‘अग्रज’ का विरोध है करता
क्योंकि वह ‘असत्य संगी’; ‘सिया’ का हरण किया,
खो दिया ‘भ्राता’ उसने; असत्य खो दिया;
भेद कह दिया(कि रावण की नाभि में अमृत है)
सत्य विजय हो गया,
विजयदशमी पर्व रूप याद बन गया।
युध्द ‘कुरुक्षेत्र’ में; जन ने संहार किया,
जन ने ‘स्वजन’ पर ही ‘वार’ है किया;
युध्द में पितामह हैं; भ्राता,चाचा,पुत्र हैं;
‘शर’ से स्वजन पर प्रहार है किया;
क्योंकि वे ‘असत्य संगी’; सत्य से विद्रोह जो
खो कर ‘स्वजन’ को है ‘सत्य’ संग रहा।
कौणप कलयुग के ऊँचे हैं आसन पर,
‘भ्रष्टाचारी’ कलयुग का शैतान है बना;
‘दीन’ का रक्त चूसे; रक्त में वृद्धि करता,
‘कंगाल’ करके ‘कंकाल’ कर दिया;
कृष्ण! हे राम! तू कलयुग में ओझल
नारायण जी! फिर से अवतार ले लो॥
#कीर्ति जायसवाल
इलाहाबाद
(शब्दार्थ:गर्दभ=गधा,शून्य=ईश्वर,बधिर=बहरा, गुह्यतम=छिपना,स्पंद=झटका,मनुज=मनुष्य,वात=हवा, शून्य=आकाश,प्राचीर=दीवार,विपिन=जंगल, शशक=खरगोश,कौणप=राक्षस)