केसरिया आखर से मैंने लिक्खी अपनी प्रेम कहानी
तुम अपने अधरों से उसको सिंदूरी कर दो तो जानूं।
निर्जीव सभी अक्षर थे; प्राण-प्रतिष्ठा की भावों ने,
इस अनुष्ठान के प्रसाद को स्वीकार करो तो मैं जानूं।
सूर्योदय से गोधुली तक; कड़ी धूप में रोज़ सुलगता
रात उतरती आँगन में; अमृत-रस है मुझको छलता,
ऋतुचक्र सभी मेरे मन पर व्रण दे जाते आशाओं के,
तुम स्पर्शों से चन्दन जैसा लेप लगाओ तो मैं जानूं।
अरे ज़रा सी मेरी चोपड़ी; पाप-पुण्य का खाता फैला,
जीवन है तलवार दुधारी; गिरूँ कहीं हो आँचल मैला,
देख रहा हूँ मैं खुद को; खुद से ही होकर निराश सा,
निस्तेज हुई इन आँखों में स्वप्न टांक दो तो मैं जानूं।
तुम महुए का पेड़; कोई मधुशाला हो या गंगाजल हो
मैं तृष्णा हूँ हर चातक की; कैसे कंठ मेरा गीला हो,
सूखे पठार पर स्वाति-बूँद के गिरने से क्या होता है,
स्नेहसिक्त अपनी आँखों से गीला कर दो तो मैं जानूं।
नाम: विवेक कवीश्वर
नयी दिल्ली
सम्मान:
प्रकाशन: 1 काव्य-संकलन
1 ग़ज़ल और नज़्म संकलन
1 दोहा और हाइकु संकलन
1 नाटक / फिल्म स्क्रिप्ट
8 काव्य के साझा संकलन