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चिंतनो में..स्वार्थ की अब..चढ़ गई हैं अर्गलाएं।
और..भावों के..भवन में,वंदिता हैं मेनकाएं॥
हो गई..हमसे विसर्जित,भरत की संतृप्ता।
भ्रमित कैकेयी-सी..मन की,रह गई अतृप्ता॥
क्यों न हो..जब..हर महल में,पल रही हैं मंथराएं।
आैर..भावों के..भवन में,वंदिता हैं मेनकाएं॥
भेदने आतुर हुई फिर,वर्जनाएं-वाचिका को।
स्वर्ण मृग फिर छल रहा है,सीय की मरीचिका को॥
पंचवटियों में उगी अब..फल रही हैं वेदनाएं।
आैर..भावों के..भवन में,वंदिता हैं मेनकाएं॥
चाहता..फिर से खुलें,संभावना की खिड़कियाँ।
घुट के ही रह जाएँ न फिर,जानकी की सिसकियाँ॥
ऐ मनुज तू मान-मानस..की व्यथित अब हैं ऋचाएं।
और..भावों के..भवन में,वंदिता हैं मेनकाएं॥
#अनुपम कुमार सिंह ‘अनुपम आलोक’
परिचय : साहित्य सृजन व पत्रकारिता में बेहद रुचि रखने वाले अनुपम कुमार सिंह यानि ‘अनुपम आलोक’ इस धरती पर १९६१ में आए हैं। जनपद उन्नाव (उ.प्र.)के मो0 चौधराना निवासी श्री सिंह ने रेफ्रीजेशन टेक्नालाजी में डिप्लोमा की शिक्षा ली है।
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