जाने कितनी बार हुआ है,
सदा पीठ पर वार हुआ है।
पढ़ा हमारा चेहरा उसने,
ज्यूँ कोई अख़बार हुआ है।
साज़िश में शामिल था वो ही,
जिसका ये आभार हुआ है।
डरते क्या हो,देखो छूकर,
लोहा कितना धार हुआ है।
परिचय : इंदौर में केट कालोनी निवासी प्रदीप कान्त की ग़ज़ल और नवगीत लेखन में विशेष रूचि है। 2012 में ग़ज़ल संग्रह ‘क़िस्सागोई करती आँखें’ प्रकाशित हुआ है। जनसत्ता साहित्य वार्षिकी (2010),समावर्तन,बया, पाखी, कथादेश और इन्द्रप्रस्थ भारती आदि साहित्यिक पत्रिकाओं व दैनिक समाचार पत्रों में गज़लें व नवगीत प्रकाशितहोते हैं। आपकी रचनाएँ कई वेबसाइट्स पर भी संकलित हैं।
अद्भुत
वाह, कम शब्दों वाली अच्छी गजल…..बोले तो गागर में सागर।
शुक्रिया शशांक जी
शुक्रिया भाई साहब