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एक खाली बर्तन सी
लूढकती देह
पसीने की बूँद बूँद से
छलक जाती है जब;
एक शून्यगामी वृक्ष सी
खडी काया
नख -शिख भीग जाती है
श्रम मेह बरसने से
जब ऊँगलियों के पौर पौर तक
टपकती है नमी…
मुख शिला पर लकीरें बना लेते है
स्वेद कण….
ऐसे मे दौड़ पडता हूँ
उस कानन कुञ्ज में..
जहाँ बहुत से पौधे बस एतदर्थ लगाये थे
कि मुझे पेड बडे होते देखना
बहुत पसंद है…..
आज इनके तले बैठता हूँ…
तो लगता है
जैसे देवता की छत्र छाया में बैठा हूँ!
समेट लेता हूँ स्वयं को आकर यहाँ.
जब भी टूट जाता हूँ बिखरने की सीमा तक
#दिलीप वसिष्ठ
सिरमौर(हिमाचल प्रदेश)
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