सुनिधि को ऑफिस जाते समय बाजार के सामने से होकर गुजरना होता है। सामान्य महिला की ही तरह वह भी मेनीक्वीन पर टंगे हुए नित नए-नए परिधानों को निहार लेती है। गत सप्ताह उसे एक कुर्ता बहुत पसंद आया। रोज दुकान के सामने से निकलकर सोचती,आज रहने देती हूँ, कल ले लूँगी। किराना लेना है,दूधवाले के भी तो पैसे हैं, काम वाली बाई भी तो है.. और अभी माँजी की तनख्वाह भी नहीं आई,अभी रहने देती हूँ। ये सिलसिला लगातार चार दिन तक चलता है। घर की सारी आर्थिक व्यवस्था जमाने के बाद,आज सुनिधि एटीएम से अपने लिए अपनी पसन्द का वो कुर्ता लेने के लिए पैसे निकालती है। जैसे ही दुकान के सामने पहुँचती है,’कुर्ता गायब’…! बिना दुकान वाले से जाने कि,उस तरह का दूसरा कुर्ता है या नहीं,या वो उसकी पसंद का कुर्ता कहीं दुकानदार ने अंदर तो नहीं रखा ? वह एक पल अपनी गाड़ी पर बैठे-बैठे ही दुकान को निहारती है,और हल्की-सी मुस्कान लिए घर की ओर बढ़ जाती है। रास्ते भर सोचती रहती है कि, वो कुर्ता शायद मेरे लिए था ही नहीं! दुकान के अंदर जा के भी क्या करती। इस महीने वैसे ही बहुत खर्चा हो गया, अगली बार तनख्वाह आएगी तो सबसे पहले अपने लिए कुछ ले लूँगी।
सुनिधि रात्रि में रोजाना की ही तरह कपड़े तह कर सासू माँ की अलमारी में रखने के लिए अलमारी खोलती है, और वैसे ही कपड़ों से भरा एक बड़ा- सा पालीबेग उसके सर पर गिरता है, और सारे कपड़े बिखर जाते हैं। इतने में इसे सासू माँ देखते ही कहती है,- ‘बेटा, मुझे अब रोज-रोज ऑफिस जाना पड़ता है,कब तक रिपीट करूँ, सब कपड़े खराब हो रहे हैं,इसलिए बस ये चार-पांच जोड़ बनवा लिए।’
सुनिधि कहती है,-‘जी माँ जी, बिल्कुल सही है,बहुत अच्छे हैं।’
फिर किचन में काम करते-करते सोचती है कि,मैं भी तो रोज ही ऑफिस जाती हूँ। शादी के इतने साल बाद भी आज तक हमेशा सोचती हूँ, इस बार तनख्वाह आएगी तो ये खरीदूँगी, वो लूंगी…लेकिन आते ही घर-परिवार की मूलभूत जरूरतें और भविष्य के लिए थोड़ा-सा कुछ जोड़ने में ही रह जाती हूँ.. और तनख्वाह आए बिना ही कोई इतने कपड़े खरीदकर भी भला कैसे कह सकता है,’बस इतने ही लिए’? मैं अपने लिए एक-एक रुपए खर्च करने में सौ बार सोचती हूँ,लेकिन मात्र सोचती ही हूँ,कभी अमल में नहीं लाती हूँ।
ये है सुनिधि,जिसे आज ‘एहसास’ है कि,उसने अपनी पसंद का वो कुर्ता न खरीदकर बहुत गलत किया। आप सभी सुझाव दीजिए कि,-‘क्या सुनिधि को स्वयं के लिए भी अपनी पसंद से बिना कुछ सोचे,कुछ लेना चाहिए’ ?
#श्रीमती माला महेंद्र सिंह
परिचय: श्रीमती माला महेंद्र सिंह, (एम एस सी, एम बी ए, बी जे एम सी)विगत एक दशक से अधिक समय से महिला सशक्तिकरण हेतु कार्यरत। जय विज्ञान पुरस्कार, स्व आशाराम भाटी छात्रवृत्ति, तेजस्विनी पुरूस्कार, गौरव सम्मान, ओजस्विनी पुरुस्कार, युवा पुरस्कार जैसे कई सम्मान प्राप्त कर चुकी है। देवी अहिल्या विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय युवा उत्सव व विभिन्न राष्ट्रीय वक्त्रत्व कौशल प्रतियोगिताओ में किया। एन सी सी सिनीयर अंडर ऑफिसर रहते हुए, सामाजिक क्षेत्र में सराहनीय कार्य हेतु सम्मानित की गई। सक्रीय छात्र राजनीती के माध्यम से विद्यार्थि हित के अनेक आंदोलनों का नेतृत्व किया। अभ्यसमण्डल, अहिल्याउत्सव समिति जैसी कई संस्थाओ की सक्रिय सदस्य है। समय समय पर समसामयिक विषयो पर आपके आलेख पढ़े जा सकते है।
अति सुंदर कहानी, मैं लेखिका की बात से सहमत हूँ जब सारे परिवार का ध्यान रखा जा रहा है तो फिर अपनी लिए क्यों नहीं ।
Ji . Ghar me balidan kayi baar dena padta hai par khud ke liye gar koi bahu soche to buri kyo
कहीं ना कहीं हर मध्यमवर्गीय परिवार मे सुनिधि से एहसास बस मन मे उठते हैं और दमतोड़ देते हैं,,,!!! अतिस्वाभाविक एंव यथार्थ चित्रण !!!
अत्यंत सुन्दर रचना, अति संवेदनशील लोगों में अपनी इच्छा की पूर्ति हमेशा Secondry हो जाती है.!