इक्कीसवीं सदी के भाषा आंदोलन का स्वरूप क्या होगा? ‘अंग्रेजी हटाओ‘ की जगह ‘अंग्रेजी पचाओ‘ का नारा कैसा रहेगा? क्या हिंदी प्रचार के बदले भारतीय भाषा प्रसार का प्रयास होगा? क्या विरोध प्रदर्शन की बजाय विकल्प निर्माण पर ध्यान रहेगा?
भाषा आंदोलन की 50वीं वर्षगांठ पर यह सब सवाल मन में उठे. सन् 1967 में 29 नवंबर के दिन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र संघ ने भाषा से सवाल पर आंदोलन किया. उग्र युवाओं पर पुलिस ने गोली चलायी थी, दो विद्यार्थी घायल हुए थे.
उसके बाद दिल्ली में संसद का घेराव हुआ था. भाषा आंदोलन के कई सिपाही महीनों तक जेल में रहे. उनमें से कई आज राष्ट्रीय नेता भी हैं. आंदोलनकारियों को सत्ता मिल गयी, लेकिन आंदोलन की मांग जस-की-तस ही रही.
भाषा का सवाल हमारे जीवन में कभी-कभार ही उठता है, जैसे संयुक्त परिवार में जमीन के बंटवारे का सवाल. यह कचोटता रोज है, लेकिन चुप्पी जल्दी से टूटती नहीं है. जब टूटती है, तो अक्सर झगड़े की शक्ल लेती है. कभी कन्नड़ के आग्रही बेंगलुरु में हिंदी के नामपट्ट पर झगड़ा करते हैं. कभी तमिलनाडु की पार्टियां केंद्र सरकार के किसी फरमान का विरोध करती हैं.
भारतीय भाषाएं एक-दूसरे से उलझती रहती हैं. और ऊपर बैठी अंग्रेजी वाली आंटी भीनी-भीनी मुस्कुराहट फेंकती रहती है. देहात या कस्बे से आनेवाले युवक-युवतियां अंग्रेजी से जूझते रहते हैं. ठीक से अंग्रेजी न बोल पाने के हीन बोध में दबे रहते हैं. हर कोई अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल भेजने की होड़ में है, टूटी-फूटी अंग्रेजी सिखानेवाले नीम-हकीमों का बाजार गर्म है. सत्ता की अघोषित राजभाषा अंग्रेजी पांव पसारती जा रही है, बाकी सब भाषाएं अपने-अपने दड़बे में सिकुड़ती जा रही हैं. ऐसे में भाषा आंदोलन को याद करें, तो क्यों? हमारे समय का भाषा आंदोलन कैसा होगा?
पिछले पचास साल में देश की आबादी के भाषाई संतुलन में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है. हिंदी न तब बहुमत की भाषा थी, न आज है. संख्या बल आज भी भारतीय भाषाओं के पास है, लेकिन सत्ता बल अंग्रेजी के पास. हिंदी को मातृभाषा कहनेवाले लोग 2001 में 41 प्रतिशत थे, जो अब 43 के करीब हो गये होंगे. (अनुमान इसलिए लगाना पड़ा क्योंकि अब भी 2001 के जनगणना के भाषाई आंकड़े सार्वजनिक नहीं हुए हैं). मातृभाषा की संख्या में अंग्रेजी कहीं नहीं टिकती. 2001 में सिर्फ दो लाख लोगों (0.02 प्रतिशत) ने ही अंग्रेजी को मातृभाषा बताया था.
पिछले 50 साल में बदलाव संख्या बल में नहीं, भाषाई सत्ता के समीकरण में आया है. मीडिया में आज भी भारतीय भाषाओं का बोलबाला है. लेकिन अंग्रेजी चैनल के विज्ञापन ज्यादा महंगे होते हैं, अंग्रेजी न्यूज चैनल खबरों का एजेंडा तय करते हैं.
आज भी देश की सबसे सुंदर साहित्यिक रचनाएं भारतीय भाषाओं में हो रही हैं, लेकिन दो कौड़ी का साहित्य लिखनेवाले अंग्रेजी के लेखक दुनिया के सवालों पर अपना ज्ञान बघारते रहते हैं. फिल्में आज भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में बन रही हैं. लेकिन समाजशास्त्र, नीति निर्धारण और विज्ञान की भाषा अंग्रेजी है.
राजनीतिक सत्ता में कौन रहता है, इससे भाषा का कोई वास्ता नहीं है. कांग्रेस राज ने भारतीय भाषाओं को धता बताया, तो राष्ट्रीयता, संस्कृति और परंपरा की दुहाई देनेवाली बीजेपी ने भी भारतीय भाषाओं के लिए कुछ नहीं किया. अटलजी जैसे हिंदी कवि के प्रधानमंत्री होते हुए भी हिंदी की स्थिति में एक सूत भी सुधार नहीं हुआ. तो क्या 21वीं सदी में दोयम दर्जे का नागरिक होने को अभिशप्त होंगी भारतीय भाषाएं? अगर 21वीं सदी में भाषा के आंदोलन को सार्थक बने रहना है, तो उसे वक्त के हिसाब से कैसे बदलना होगा?
किसी एक भाषा के बजाय तमाम भारतीय भाषाओं का आंदोलन बनाना होगा. हिंदी भाषा-भाषी अक्सर एक झूठे अहंकार का शिकार होते हैं. संविधान कहीं भी हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित नहीं करता, लेकिन हिंदी वाले अपने सर पर यह हवाई मुकुट लगाये घूमते हैं. इससे हिंदी को कुछ नहीं मिलता. देश के भविष्य में हिंदी की विशिष्ट भूमिका यही है कि वह भिन्न-भिन्न भाषा बोलनेवालों के बीच सेतु का काम कर सकती है. हिंदी झुकेगी, तो फैलेगी और ऐंठ दिखायेगी, तो सिकुड़ेगी.
दरअसल, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के विवाद से पिंड छुड़ाने की जरूरत है. हर राष्ट्र को एक राष्ट्रभाषा चाहिए, यह यूरोप की बीमार मानसिकता की सोच है. हमारी सभ्यता हमेशा से बहुभाषीय रही है. उस बहुभाषीय संस्कार को सरकारी कामकाज, शिक्षा-ज्ञान की दुनिया में अपनाने की जरूरत है. 60 के दशक का त्रिभाषा फाॅर्मूला सही कदम था, लेकिन इसका मतलब सिर्फ यह नहीं था कि गैर हिंदी भाषी अपनी मातृभाषा और अंग्रेजी के साथ हिंदी भी सीखें.
इसका मतलब यह भी था कि हिंदी अंग्रेजी के अलावा एक अन्य भारतीय भाषा भी सीखें. ऐसा हुआ नहीं और त्रिभाषी फॉर्मूला बेकार हो गया.
भारतीय भाषाओं के आंदोलन को अंग्रेजी से अपने रिश्ते को पुनर्परिभाषित करना होगा. अब अंग्रेजी भी एक भारतीय भाषा है. आज के समय में देश को दुनिया से जोड़ने का सेतु अंग्रेजी भाषा है. इसलिए अंग्रेजी से झगड़ने या उसे हटाने की बजाय अंग्रेजी को हजम करने की जरूरत है.
जैसे अंग्रेजी ने भारतीय भाषाओं के हजारों शब्द अपनी डिक्शनरी में शामिल कर लिये हैं, उसी तरह हम भी अंग्रेजी के शब्द हजम करना शुरू करें.
हमारी असली ऊर्जा अंग्रेजी हटाने के बजाय भारतीय भाषाओं को बनाने में खर्च होने चाहिए. आज अधिकांश भारतीय भाषाओं में समाजशास्त्र, विज्ञान और देश दुनिया के वर्तमान और भविष्य को समझ सकने की सामग्री का घोर अभाव है. भारतीय भाषा माध्यम में उच्च शिक्षा लेनेवाले अधिकांश विद्यार्थियों को अपनी भाषा में अच्छे स्तर की किताबें नही मिलतीं.
कुछ भारतीय भाषाओं को छोड़कर अधिकांश भाषाओं में बाल साहित्य और किशोर साहित्य का तो मानो अकाल है. इस अभाव को पूरा करने के लिए अनुवाद और भारतीय भाषा लेखन का अभियान चलना चाहिए. कॉलेज और यूनिवर्सिटी में पढ़ानेवाले अध्यापकों के मूल्यांकन का एक प्रमुख आधार यह होना चाहिए कि उन्होंने भारतीय भाषाओं में कितनी और कैसी सामग्री तैयार की है. ऐसे नये आंदोलन की शुरुआत के रूप में हिंदी दिवस की जगह भारतीय भाषा दिवस मनाना शुरू कर दें, तो कैसा रहे?
#प्रो योगेंद्र यादव