अद्भुत मिलन

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surekha sharma

कालिज में वार्षिकोत्सव की तैयारियाँ चल रही थी,इसीलिए हर रोज आते -आते शाम के पांच बज जाते थे।वैसे भी नवम्बर का महीना चल रहा था।शाम का धुंधलका -सा होने लगा था।गाड़ी से उतरी तो देखा कालोनी में और दिनों की तरह बच्चों की चहल पहल नहीं थी,अन्यथा इस समय तो क्रिकेट व बैडमिन्टन खेलने वाले बच्चों का इतना शोर होता था कि आपस में बात करना भी मुश्किल हो जाता था।पर आज तो चारों ओर खामोशी छाई हुई थी।मन किसी अज्ञात आशंका से घबरा उठा।अभी चार कदम ही चली थी कि देखा चार- पांच महिलाएं आपस में धीरे-धीरे बात करती दिखाई दी।उनसे कुछ पूछती इससे पहले ही मेरी नजर तिवारी जी के घर की ओर गयी तो देखा बाहर के लाॅन में लोगों की भीड़ लगी थी और  अंदर से जोर- जोर से दहाड़े मारते हुए  रोने की आवाज भी आ रही थी ।यह सब देखकर मैं घबरा  उठी सोचने लगी कि  सुबह तक  तो सब ठीक था अचानक क्या हो गया••••?
उसी समय काम वाली बाई लक्ष्मी सामने से मेरी ओर ही आती दिखाई दी।उसने जो बताया तो सुनकर मेरे पैरों तले से जमीन ही खिसक गई । वह अपनी आँखे पोंछते हुए बोली, “दीदी कल रात जो ट्रेन दुर्घटना ग्रस्त हुई थी उसमें तिवारी जी का बेटा भी था ।बहुत से लोग तो  उसी समय खत्म हो गए ,जो बचे थे वह भी गंभीर रूप से घायल हैं, अस्पताल में उनका  उपचार किया जा रहा है ।शव इतनी बुरी तरह से जल गए थे कि उन्हे पहचानना भी मुश्किल हो गया था ।लोगों ने सामान देख- देख कर ही अपने परिजनों की पहचान की ।किस्मत की मार तो  देखिए कि अपने बेटे के अन्तिम दर्शन भी नहीं कर सके।बस बिटिया, तभी से घर में कोहराम मचा है । आभा पर क्या बीत रही होगी यह सोच-सोचकर कंपकंपी छूट रही थी ।तभी लक्ष्मी बोली, “दीदी,  आभा बिटिया तो बार-बार बेहोश हुए जा रही है ,क्या होगा भगवान ही जानता है, उससे भी  इस  घर की खुशी नहीं देखी गई ।”
“तुमने  सच कहा लक्ष्मी, चार दिन पहले ही तो अपनी प्यारी  गुड़िया की पांचवी वर्षगांठ मनाई थी, उस समय लग रहा था जैसे सारे जहान की खुशियां इस घर में समा गई हों और आज दखो वहीं मातम ने अपने पांव फैला दिए।पता नहीं किस की नजर लग गयी?”       “पहाड़ -सी जिन्दगी कैसे कटेगी •••हे भगवान •••दुश्मन के साथ भी ऐसा ना हो ।” विलाप करती हुई लक्ष्मी अपने काम पर चली गई। रह- रहकर  आभा का चेहरा  आँखों के सामने घूमता रहा ।
घर  आकर जल्दी -जल्दी कपड़े बदले और थके-थके कदमों से  आभा के घर की ओर चल पड़ी । आभा  जब  इस घर में दुल्हन बन कर आई थी तभी से मुझे अपनी बड़ी बहन जितना आदर देने लगी थी ।आभा सरल स्वभाव की अपने नाम के  अनुरूप सुन्दर थी । उसे जब भी कोई समस्या होती तो झट से मेरे पास आ जाती ।अपना हर सुख-दुख  मुझसे बाँटने लगी थी ।दुनियादारी की समझ भी अभी ज्यादा नहीं थी ।आज पहाड़ बनकर दुख उस पर टूट  पड़ा ।जितना सोच रही थी दिमाग  उतना ही  सुन्न होता जा रहा था । विभास नहीं रहा विश्वास ही नही हो रहा था
भारी मन से कदम अन्दर रखा ही था कि उसे देखते ही आभा दहाड़ मारकर रो पड़ी, मैं उसे संभालती लेकिन वह फिर बेहोश हो गई । एक ही दिन में उसके चेहरे की आभा भी खो गई थी ।पास में बैठी उसकी बेटी सुहानी सूनी  आँखों से सबकी ओर ताक रही थी ।मुझे देखते ही वह मेरे पास आकर बैठ गई और बोली, “आंटी, मम्मी को क्या हो गया, वे रो क्यों रो रही हैं?” उसके मासूम प्रश्नों के जवाब न देकर मैंने उसे गले से लगा लिया ।पानी की बूंदे डालकर  आभा को होश में लाया गया ।होश में आने पर वह मेरे गले लगकर सुबकती  रही । उसका दुख कम करने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं थे।हृदय से लगा कर  मौन शब्दों में ही सान्त्वना देती रही ।मन बार -बार यही कह रहा था कि भगवान  इतना क्रूर कैसे हो सकता है ?जिसने छोटी सी बच्ची के सिर से पिता का साया ही छीन लिया ।
कुछ देर  वहां रहकर मैं  आते हुए सुहानी को अपने साथ ले आई क्योंकि वह सबको रोता- बिलखता देखकर सहम -सी गई थी ।  इतना तो  वह समझ गयी थी कि जरूर उसके पापा के साथ कुछ हुआ है, क्योंकि सभी  उसके पापा का नाम बार -बार ले रहे थे । ऊंगली थामे खामोशी से चलते -चलते अचानक से बोली,”आंटी,क्या मेरे पापा अब कभी नहीं आएंगे ?” उसका बाल सुलभ प्रश्न सुनकर मेरी आंखें नम हो गयी और मैंने उसे सीने से लगा लगा लिया।
आभा के विलाप से घर की दीवारें भी कांप गयी थी।मृत शरीर मिला नहीं था लेकिन फिर भी सारे क्रिया- कर्म किए गये।आभा पल-पल मर रही थी।उसे अभी तक विश्वास नही हो पाया था कि विभास उसे छोड़कर चले गये हैं।उसे अपना कोई होश नहीं रहा था।सारा -सारा दिन अकेले ही रोती रहती,कोई हिम्मत बंधाने वाला नही था।सुहानी समझ चुकी थी कि अब उसके पापा नही आएंगे।जब भी कभी सिसकियां लेती तो आभा उसे अपने सीने से लगा लेती।विभास की निशानी को संभालने के लिए अपने होंठों पर झूठी हंसी का लेप लगा लिया था।एक रात आभा सुहानी को थपकी देकर सुला रही थी तो सुहानी आभा के मुख पर अपनी नन्ही -नन्ही ऊंगलियां फिराते हुए बोली, ” मम्मी, पापा की तरह आप तो नही जाएंगी ना, मुझे अकेला छोड़कर ?” यह सुनकर तो आभा बिलख ही पड़ी और सुहानी को खींचकर  हृदय से ऐसे लगाया कि सुहानी को कोई उससे छीन न ले।
एक रात सोते- सोते सुहानी जोर से चिल्लाई ,’पा..पा….पापा… पापा कहकर बैठ गयी।आभा उसे थपकी देकर पुन:सुलाने लगी तो वह बोली,” मम्मी मैंने अभी- अभी सपने में पापा को देखा।”
“सो जा बेटे रात बहुत हो गयी है,पापा की बिटिया को कल स्कूल भी जाना है ना!” कहते कहते वह स्वयं भी रोने लगी। “मम्मा चुप हो जाओ, अब मैं कभी तंग नहीं करूंगी आपको।”
विभास ने आभा को कभी नौकरी नहीं करने दी जब भी वह कभी नौकरी की बात करती तो विभास का यही कहना होता कि, “तुम्हे क्या आवश्यकता है, इतना तो मैं कमा ही लेता हूं जिसमें  हमारी आवश्यकताएं पूरी हो जाएं।तुम सुहानी  का ध्यान रखो बस….यही तुम्हारी नौकरी है ..।” पर आज आभा को बाहर निकल कर काम करने की जरूरत थी।
अचानक विभास के चले जाने के सदमे से आभा अभी अच्छी तरह से बाहर भी नहीं निकल पाई थी कि घर का माहौल उसके विपरीत होने के साथ- साथ असहनीय होता जा रहा था ।सास- ननदों के कटू बाणों की वर्षा जब तब शुरू हो जाती।जो कभी घर की लक्ष्मी कहलाती थी,आज वही मनहूस,अभागी कहलाने लगी थी।एक दिन तो हद ही हो गयी जब सास  आटा गूंधते हुए उसके  हाथों से छीन कर धक्का देते हुए बोली, ” तू अब यहां रहकर क्या करेगी,आते ही मेरे बेटे को खा गयी।इस घर में अब क्या रखा है तेरा? यहां से चली क्यूं नहीं जाती ?तुम मां बेटी मेरे सामने रहोगी तो मुझे अपना बेटा याद आता रहेगा ।”
दिन -पर -दिन जूल्म बढ़ते जा रहे थे।आखिर कब तक जूल्म सहती। एक दिन सुहानी के दूध मांगने पर आभा की ननद सुहानी को थप्पड़ मारते हुए बोली, “तेरा बाप यहाँ खजाना नही छोड़कर गया  जो तुम्हें दूध दें ।विभास की सोतेली माँ और बहन ने आभा और सुहानी का जीना दूभर कर दिया ।आखिरकार आभा ने वहाँ से चले जाने में ही अपनी भलाई समझी ।बेटी सुहानी को लेकर चल पड़ी अपने मायके की ओर।आज उसे माँ के कहे शब्द  याद आ रहे थे,जो अकसर  कहा करती थी,  ‘बेटी जीवन में  पढ़ाई बहुत ही जरूरी है, पता नहीं कब काम आ जाए।’ घर में सबके विरोध के बाद भी माँ ने बी•ए•तक की पढ़ाई करवा दी,क्योंकि भाई -भाभी जल्दी -से -जल्दी शादी करके  अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे । अचानक से ध्यान आया कि माँ- बाबू जी तो अब रहे ही नही, फिर मायके में कौन सहारा देगा? भाभी को तो वह पहले ही नही सुहाती थी फिर कैसे जा सकती है वहाँ ? नहीं ••••। बिना कुछ सोचे समझे वह बीच में ही गाड़ी से उतर गई ।प्लेटफार्म पर बिछे  बैंच पर सुहानी को बिठा कर उसे पानी पिलाया और स्वयं भी पीने लगी।साडी के पल्लू से पसीना पोंछते हुए  उसे एक ही चिंता खाए जा रही थी कि वह अपनी बच्ची को
लेकर कहाँ जाए?  तभी  ‘आभा •• आभा’•••अपने नाम से किसी को आवाज लगाते अनजान शहर में सुनकर  चौंक गई और  इधर-उधर देखने लगी। देखा तो सामने काॅलिज में साथ पढ़ने वाली  सहेली दिव्या को देखकर हैरान रह गई जो हलके आसमानी रंग की साड़ी पहने मेरे सामने खड़ी थी । एक बार तो मुझे विश्वास ही नही हुआ । अपलक अपनी ओर देखते हुए वह मुझे झिंझोड़ते हुए हैरान होते हुए  बोली, “आभा •••यह क्या हालत बना रखी है तुमने !  और विभास कहाँ है, यहाँ अकेले इस शहर में क्या कर रही हो? ” एक साथ इतने सारे प्रश्नों के जवाब में उसकी  आँखों से अविरल  अश्रुधारा बहने लगी।आगे कुछ न पूछकर दिव्या ने कुली से   सामान उठवाया और सुहानी को गोद में लेकर  उसे अपने साथ चलने के लिए कहा । स्टेशन से बाहर सरकारी गाड़ी खड़ी थी ।उसमें सामान रखवाया  और साथ बिठाकर अपनी कोठी पर ले आई ।नौकर से गैस्ट हाऊस खोलने को कहा । आभा ने दिव्या से पूछा, ”तुम  इस शहर में कैसे ? तुम्हारी शादी तो चंडीगढ हुई थी ना?”

“हाँ ,अब इनकी ट्रांसफर जिला मैजिस्ट्रेट के पद पर इसी शहर में हो गयी है । अच्छा ये सब बातें छोड़ो ! पहले तुम हाथ- मुँह धो लो,मैं सबके लिए नाश्ता लगवाती हूं ,फिर आराम से बैठकर बातें करेंगे ।” दिव्या ने कहा ।
आभा की स्थिति जानकर दिव्या ने  अपने पास ही रुकने को कहा ।उसके लिए इससे सुरक्षित ठिकाना कहीं नहीं था।कुछ सोचकर  आभा बोली, “मैं किसी पर बोझ बन कर नही रह सकती दिव्या, यहाँ मैं तभी रह सकती हूँ ,यहां रहकर कोई नौकरी करूं”
“नहीं आभा, हमारे होते तुम्हे कुछ करने की जरूरत नहीं।” दिव्या के पति  अनिरूध्द ने कहा ।
“अनिरूध्द  जी,आप दोनों के इस  अहसान को तो मैं कभी भी नहीं भूल सकती।दिव्या तो स्टेशन पर मुझे भगवान के रूप में ही मिली,नहीं तो पता नही हम माँ -बेटी कहाँ भटकते •••कहते-कहते आभा की आँखें आँसू बहाने लगी । आँसू पोंछते हुए दिव्या ने अपनी सखी आभा को गले लगा लिया और बोली ,”ठीक है  आभा जैसा तुम्हें ठीक लगे।हम तो बस यही चाहते हैं कि तुम और सुहानी खुश रहो।”
सुहानी को पास के ही स्कूल में दाखिल करवा  दिया गया  तथा स्वयं नौकरी करने लगी।आभा ने स्वयं को इतना व्यस्त कर लिया था कि विभास की यादों को स्मृतियों में संजोए कार्य करती रही।उसके बाद किसी रिश्तेदार या ससुराल वालों ने कोई खोज खबर नहीं ली।
आभा कई बार सोचने पर विवश हो जाती कि इस दुनिया में अलग -अलग चरित्र के लोग कैसे हैं?जहां अपने कहे जाने वाले लोग एक पल में बदल जाते हैं वहीं दूसरी ओर जीवन के किसी मोड़ पर अजनबी लोग मिलकर अपनेपन का एहसास करा देते हैं,फिर खून के रिश्ते कैसे बड़े  हो जाते हैं  ?अपनों के द्वारा ठुकराए जाने के बाद बेगानों ने अपनाकर जीवन को राह पर चलना सिखाया ।जिंदगी को आगे चलाने के लिए संघर्ष करते-करते न जाने कितने वसंत बीत गये इसका तो पता ही नहीं चला।                    आज सुहानी के कालिज में वार्षिकोत्सव था।विशेष उपलब्धि प्राप्त करने वाले छात्रों को पुरस्कृत करने का भी आयोजन था।जिसमें सभी के अभिभावक आमन्त्रित किए गये थे।इसलिए आभा को भी सुहानी के साथ जाना था।आज उसे विभास बहुत याद आ रहे थे।आभा ने बहुत समय से स्वयं को आईने में सही से भी नहीं निहारा था।उसकी नजर अपने बालों में आई सफेदी पर पड़ी।समय की परछाई की झुर्रियां भी चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी।वह अतीत की यादों में भटक गयी।आंखें छलक आई।शब्द अन्दर ही अन्दर घुलते रहे।…..काश आज तुम होते तो अपनी सुहानी को पुरस्कार लेते देखकर कितने खुश होते।सोचते-सोचते आंखों ने जलधारा बहा ही दी।विभास की निशानी को किस तरह संभाल कर रखा है उसने ,यह वह ही जानती है।
मंच से सुहानी तिवारी का नाम पुकारा गया। सुहानी पुरस्कार लेने मंच पर पहुंची।उसे पुरस्कार लेते देख कर आभा स्वयं को रोक न सकी और उसकी सिसकी बंध गयी।सुहानी  मैडल आभा को देकर  चरण छूने लगी तो आभा ने बेटी को गले लगा लिया।सुहानी की आंखें भी बहने लगी।आंसू पौंछते हुए बोली, “बेटे खुशी के मौके पर रोते नहीं।” सुहानी आभा के गले लग कर रोते हुए बोली,”मम्मी,आज पापा की याद बहुत आ रही है।आभा भी अपना धीरज खो बैठी।मां-बेटी की ऐसी स्थिति देखकर वहां उपस्थित सभी की आंखें नम हो उठी और तभी सभी की दृष्टि मंच की ओर से आते हुए उस प्रभावशाली व्यक्तित्व पर गयी जो आज के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि भी थे तथा दूर से  ही  सुहानी….आभा…का नाम पुकार रहे थे।उनकी आवाज में एक दर्द छिपा था।आभा और सुहानी हैरान होकर इधर-उधर देखने लगी।सुहानी को तो कुछ समझ नहीं आया पर आभा जो देख रही थी उस पर यकीन करना आसान नहीं था। जिस कारण वह ज्यादा देर खड़ी न रह सकी और आंखों के आगे अंधेरा छा जाने से गिर जाती इससे पहले ही विभास ने आकर उसे अपनी  बांहों में थाम लिया और सुहानी को अपने पास बुला कर बोले,”बेटे, हम तुम्हारे पा…पा।”
“पा.,.पा…..पापा ” कहकर सुहानी जोर से चिल्लाई और उनसे लिपट गयी वहां पर उपस्थित सभी लोगो के लिए यह दृश्य इतना कारुणिक था कि अपनी आंखें पौंछते हुए करतल ध्वनि से इस अद्बुत पुनर्मिलन का स्वागत किया।विभास की सुरक्षित बांहों का सहारा पाकर  आभा के सलोने मुख की आभा पुन:लौट आई थी।आंसुओं के साथ चौदह वर्षों के बनवास का छिपा दर्द बह निकला।मौत को हरा कर किस तरह दो वर्ष कोमा में रहने के बाद बाहर निकला था।लेकिन अपने परिवार को खोने का गम उसे पल -पल कचोटता था।कहां-कहां नहीं ढूंढ़ा उसने।आज अपने परिवार को पाकर सारे जहां की खुशी हासिल कर ली थी।आभा सुहानी और विभास का पुनर्मिलन एक समारोह बन गया।इस सुखद बेला पर सभी की आंखों से खुशी के आंसू छलकने को बेताब थे…….।

#सुरेखा शर्मा
नाम –सुरेखा शर्मा ‘शान्ति’  (विद्यासागर)
        पूर्व हिन्दी/संस्कृत विभाग( सी•बी•एस•सी•ई•स्कूल) सेेवानिवृृत 
शिक्षा -एम•ए•हिन्दी साहित्य (बीएड)
अभिरूचियां व उपलब्धियां—
•एस•सी•ई•आर•टी•गुरुग्राम द्वारा आयोजित शिक्षक प्रशिक्षण में समय-समय पर व्याख्यान।
  प्रकाशन –●रिश्तों का एहसास (कहानी संग्रह)
                 ●और दीप जल उठे (कहानी संग्रह) 
                  ●नन्ही कोपल ( बाल कविता संग्रह)
                   ●आओ पढें मनन करें( बाल एकांकी  संग्रह)
                   ●प्रतिनिधि कहानियाँ  (कहानी संग्रह )

●अरिहंत पब्लिकेशन के अन्तर्गत कक्षा नवम से बारहवीं तक सहायक पुस्तकें प्रकाशित।
●प्रवेशिका से कक्षा पाँच तक हिन्दी पाठ्यपुस्तक सी•बी•एस•ई•पाठ्यक्रम पर आधारित “मेरी हिन्दी रसमाला”(सी•एल•पब्लिकेशन 
●कविता/गीत ,बाल कविताएँ,कहानी, आलेख निबंध, समीक्षा, नाटक, नुक्कड़ नाटक,व्यंग्य आदि राष्ट्रीय पत्र /पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित।
●साहित्यिक संगोष्ठियों में सहभागिता तथा विभिन्न काव्य मंचों से काव्य पाठ ।
●दिल्ली दूरदर्शन, जनता टी•वी•,हरियाणा एस•टी•वी•पर परिचर्चा व काव्य पाठ ।
सम्मान -अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा देश विदेश में सम्मानित 

संप्रति -•नीति आयोग (भारत सरकार) हिन्दी सलाहकार सदस्या।

            • अखिल भारतीय साहित्य परिषद् कार्यकारिणी सदस्या

             •हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी सलाहकार सदस्या

             • कादम्बिनी क्लब गुरुग्राम (संचालिका)
             •प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन(प्रयाग) गुरुग्राम -संयुक्त मंत्री

                 

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संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।