शिक्षा की बदहाल तस्वीर और मुंह चिढ़ाते आंकड़े

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devendr joshi
इसे विडंबना ही कहा जाना चाहिए कि जिस देश में साक्षरता का प्रतिशत २०११ की जनगणना के अनुसार ७५.०६ हो वहां एनुअल स्टेटस ऑफ एज्यूकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) २०१७ के मुताबिक १४ से १८ साल की उम्र के ग्रामीण भारत के २५ फीसदी स्कूली बच्चों को किताब पढ़ना नहीं आता है। ४४ प्रतिशत बच्चों को वजन तौलना नहीं आता है। ८६ प्रतिशत बच्चे लम्बाई नहीं नाप सकते। ५७ प्रतिशत बच्चों को तीन अंकों का भाग करना नहीं आता। यही नहीं,१४ प्रतिशत बच्चे देश का नक्शा नहीं पहचानते। ३६ प्रतिशत बच्चों को देश की राजधानी के बारे में नहीं पता। २१ प्रतिशत बच्चे अपने प्रदेश का नाम नहीं जानते। गणित  की यदि बात करें तो ८वीं से १२ वीं तक के २५ प्रतिशत बच्चों को पैसे गिनना नहीं आता। करीब ४० फीसदी बच्चे घंटे और मिनिट का अंतर बताने में असमर्थ हैं। ऐसा नही है कि एएसईआर ने यह रिपोर्ट कोई पहली बार जारी की है। संस्था सन् २००६ से प्रतिवर्ष अपने सालाना सर्वे के बाद इस तरह की रिपोर्ट जारी कर व्यवहार की वास्तविकता से देश और समाज को अवगत कराती आई है,लेकिन इतने वर्षों के बाद भी बच्चों की समझदारी के स्तर में कोई खास सुधार न होना चिन्ता का विषय है। यह रिपोर्ट अपने-आप में इस बात का प्रमाण है कि सरकारी आंकड़ों  की कथनी और करनी में कितना अंतर है। साल दर साल साक्षरता का प्रतिशत बढ़ने पर खुश होने वाले नीति नियामक आंकड़ों में वर्णित कागजी प्रगति को ही वास्तविक प्रगति मानकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। उनके पास इतनी फुर्सत नहीं होती कि इन आंकड़ों में जो कुछ कहा जा रहा है कभी उसकी हकीकत की भी पड़ताल की जाए। अगर ऐसा किया जाता तो आज ये चौंकाने वाले आंकड़े सामने नहीं आते। शिक्षा और साक्षरता के आंकड़ों में तस्वीर इसलिए चमकदार नजर आती है कि वहां शाला के रजिस्टर में नामांकन को ही शिक्षा और साक्षरता का पर्याय मान लिया जाता है। इस गहराई में जाने की कोई कोशिश नहीं करता कि जिस बच्चे ने शाला में दाखिला लिया है उसके प्रवेश की निरन्तरता की क्या स्थिति है,कहीं उसने प्रवेश लेने के बाद स्कूल छोड़ तो नहीं दिया,जिस कक्षा में वह पढ़ रहा है उस स्तर की शिक्षा या ज्ञान उसे मिल भी पा रहा है या नहीं आदि-आदि। आंकड़ों की किताब में शिक्षा और साक्षरता की स्थिति दर्ज करने वाले दस साल में एक बार ही आते हैं। उनके लिए देश के बच्चों की शिक्षा और साक्षरता महज एक आंकड़ा है,जबकि हमारे लिए यह एक संवेदनशील मामला है क्योंकि आप और हम इसमें देश का भविष्य तलाशने की माथापच्ची कर रहे हैं। इस तरह की रिपोर्ट या सर्वेक्षण जहाँ शिक्षा की जमीनी हकीकत को सामने लाती है,वहीं इस बात की ओर भी इशारा करती है कि सिर्फ शैक्षणिक कैलेंडर का सख्ती से पालन होना,बच्चों की परीक्षा लेकर उत्तीर्ण की अंकसूची थमा देना और शाला में दाखिले को ही साक्षरता का पर्याय मान लेना पर्याप्त नहीं है। अगर हम वाकई देश की शिक्षा की तस्वीर बदलना चाहते हैं तो हमें इस बने-बनाए फ्रेमवर्क से बाहर निकलना होगा। ऐसी शिक्षा किसी काम की नहीं है जो अपने विद्यार्थियों को उपाधि या अंकसूची तो देती हो लेकिन उनके समाजोपयोगी व्यावहारिक ज्ञान में वृद्धि नहीं करती हो। आज आवश्यकता इस बात की है कि, आंकड़ों के भ्रमजाल में उलझने की बजाय बच्चों को शालाओं में दी जा रही शिक्षा को परिणाममूलक और जीवनोपयोगी बनाने पर जोर दिया जाए। तभी हम भारत को विश्व गुरू बनाने का सपना साकार कर पाएंगे।
          #डॉ. देवेन्द्र  जोशी

परिचय : डाॅ.देवेन्द्र जोशी गत 38 वर्षों से हिन्दी पत्रकार के साथ ही कविता, लेख,व्यंग्य और रिपोर्ताज आदि लिखने में सक्रिय हैं। कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है। लोकप्रिय हिन्दी लेखन इनका प्रिय शौक है। आप उज्जैन(मध्यप्रदेश ) में रहते हैं।

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