नारी:कल और आज 

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सदियों पहले हो के तिरस्कृत,
रोयी       सीता    माता    है।
नारी   की उस   दीन दशा को,
क्यों जग बार-बार दोहराता है?
मिथ्या   आरोपों   का  जब,
जगजननी ने न प्रतिकार किया।
तभी अधम की बुद्धि के आगे,
धर्म  ने अत्याचार     किया॥
निर्भीक विचरता सदा अधर्मी,
क्यों सत्य भयातुर हो जाता है?
नारी  की उस  – – – – – – – ,
क्यों जग बार-बार – – – – – ?
कैसा  पौरूष मर्यादा कैसी?
हुआ   न्याय यह     कैसा?
जो   किया विलग निर्वासित,
रानी   को   तुच्छों   जैसा॥
शक   के   घेरे   में नारी  ही,
क्यों पुरुष सदा बच जाता है?
नारी की उस – – – – – – — – ,
क्यों जग बार-बार – – – – – -॥
वह  देवी  थी  क्षमाशील पर,
सहती  भी आखिर कितना?
थी   त्यागमयी,  स्नेह -पुंज,
सबमें तेज नहीं उस जितना॥
मूक रहा जो अन्याय के आगे,
वही   सजा  क्यों  पाता   है?
नारी  की  उस – – – – – – – –  -,
क्यों जग  बार-बार – – – – – -?
फटी मही और कौंधी बिजली,
आया    रथ    सोने       का।
नतमस्तक  चल  पड़ी  सिया,
दुःख हुआ राम को खोने का॥
अंक  में ले दुहिता को अपनी,
हुई  विदीर्ण  धरा   माता है॥
नारी   की  उस – – – – – – – – -,
क्यों  जग  बार-बार  – – – – -?
सदियों से ही अग्नि-परीक्षा में,
खरी    उतरती   आई   पर।
तन खिले ‘अधर’ परिलक्षित हों,
अर्न्तमन   तो  जाए    मर ॥
प्रेमपाश  की श्वांस न  देकर,
क्यों  जीते जी  लटकाता है?
नारी   की उस दीन दशा को,
क्यों जग बार-बार दोहराता है?
                                                                   #शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’

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