
साहित्य की गंगोत्री से लेकर छोटी-छोटी नहरों तक की यात्रा से आप परिचित होंगे। शुचिता और पथ पर अवरुद्ध होते हुए भी कितनी नदिया प्रसिद्धि के सागर में मिली, यह भी आप जानते हैं।
वर्तमान परिदृश्य देखिए। हम क्या लिख रहे हैं और क्यों लिख रहे हैं। इतना लिखने के बाद भी हमारी कोई रचना उस सागर तक क्यों नहीं पहुँचती। इतना ज्ञान एकत्र करने पर भी हमारे दोहे कबीर जी की तरह या चौपाइयां तुलसीदास जी की तरह घर-घर क्यों नहीं पहुंचते।
इसे एक पावन योग ही कहा जाना चाहिए, जो ईश्वरीय शक्ति से कभी-कभी किसी-किसी को ही मिलता है। रविन्द्र नाथ टैगोर के गीतांजलि लिखने के बाद वे कितना भी प्रयास कर लेते, फिर उसी तरह की कृति सम्भव नहीं थी। हरिवंशराय बच्चन जी के मधुशाला लिखने के बाद कितना भी प्रयास कर लेते, पुनः उसी तरह की कृति नहीं लिख पाते, क्योंकि यह योग बार-बार नहीं होता।
अब प्रश्न ये आता है कि हम क्या लिखें ? इसका उत्तर हमें इस उदाहरण में मिलेगा।
बारिश के दिनों हम छाता बनाते हैं, हमारे वरिष्ठजनों ने काला छाता बनाया, उन्हें देखकर हम भी काले छाते बनाने लगे। बाज़ार में हम सभी एक जैसे काले छाते लेकर निकले। हां उनमें कोई पुराना, कोई नया, कोई छोटा, कोई बड़ा, कोई बटन वाला, कोई क्लिप वाला, किसी का हत्था अलग.....बहुत कुछ अलग था, किन्तु भीड़ में सभी काले छाते एक जैसे लगते थे। तभी किसी ने वही छाता बनाया, किन्तु उस पर एक सफेद लकीर खींच दी, अब वो भीड़ में अलग दिखने लगा, वो काला होते हुए भी एक सफेद लकीर के कारण सभी की दृष्टि उसी पर पड़ती।
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस विषय पर हमारे पुरखे जिस विधा में लिख गए, जितना लिख गए, उसे पढ़कर अब हमें आगे लिखना है, कुछ अलग लिखना है। उन काले छातों पर कहीं सफेद लकीर खींचनी है, तो कहीं फूल, पत्ते बनाने हैं, कहीं आकार भी कुछ अलग देना है, तभी तो पाठक औऱ श्रोता उसे उत्सुकता के साथ ग्रहण करेंगे। आप मेरा आशय समझ गए होंगे।
कम लिखो, किन्तु काम का लिखो। दौड़ जारी रखो, किन्तु होड़ से दूरी रखो। तभी आप साहित्य के आकाश में एक नक्षत्र बन पाएंगे अन्यथा सागर से बने वाष्प और बादल बनने की प्रक्रिया के बाद थोड़ा झरकर अस्तित्व खत्म कर देंगे।
औऱ हां….उस आकाश तक जाने के लिए आपको कोई सीढ़ी दे या न दे, आपकी ईमानदारी और परिश्रम के पंख ही काम आएंगे, यदि सिर्फ सीढ़ी के भरोसे रहे, तो पता नहीं कब, कौन, कैसे वो सीढ़ी खींच ले।
#नरेंद्रपाल जैन