अंग्रेज़ से ज़्यादा खतरनाक अंग्रेज़ी

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हिन्दी लेख माला में डॉ वेदप्रताप वैदिक जी के लेख

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

भाजपा सरकार ने मानव-संसाधन मंत्रालय नाम बदलकर उसे फिर से शिक्षा मंत्रालय बना दिया, यह तो अच्छा ही किया लेकिन नाम बदलना काफ़ी नहीं है। असली सवाल यह है कि उसका काम बदला कि नहीं? शिक्षा मंत्रालय ने यदि सचमुच कुछ काम किया होता तो पिछले सात साल में उसके कुछ परिणाम भी दिखाई पड़ने लगते। शिक्षा मंत्रालय का काम बदला कि नहीं लेकिन सात साल में उसके चार मंत्री बदल गए। यानी कोई भी मंत्री औसत दो साल भी काम नहीं कर पाया। इस बीच कई आयोग और कई कमेटियाँ बनीं लेकिन शिक्षा की गाड़ी जहाँ खड़ी थी, वहीं खड़ी है। अब एक नई घोषणा यह हुई है कि प्राथमिक शिक्षा से उच्च-शिक्षा और शोध-कार्य तक भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहित किया जाएगा। यह नई शिक्षा नीति (2020) के तहत किया जाएगा। लेकिन पिछले डेढ़-दो साल सरकार ने खाली क्यों निकाल दिए?

असलियत तो यह है कि पिछले 74 साल से शिक्षा के क्षेत्र में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुए। इंदिरा गांधी के ज़माने में शिक्षामंत्री त्रिगुण सेन और भागवत झा आज़ाद ने कुछ सराहनीय कदम ज़रूर उठाए थे, वरना शिक्षा की उपेक्षा सभी सरकारें करती रही हैं। लॉर्ड मैकाले की शिक्षा-पद्धति की नकल आज भी ज्यों की त्यों हो रही है। अंग्रेज़ी की गुलामी के कारण पूरा राष्ट्र नकलची बन गया है। वह अपनी मौलिकता, प्राचीन विधाओं और उपलब्धियों से स्वयं को वंचित करता है और पश्चिमी चिंतन और जीवन-पद्धति का अंधानुकरण करता है। इसीलिए कई एशियाई देशों के मुकाबले भारत आज भी फिसड्डी है। विदेशी भाषाओं और विदेशी चिंतन का लाभ उठाने में किसी को भी चूकना नहीं चाहिए लेकिन स्वभाषाओं को जो नौकरानी और विदेशी भाषा को महारानी बना देते हैं, वे चीन और जापान की तरह समृद्ध और शक्तिशाली नहीं बन सकते। भारत जैसे दर्जनों राष्ट्र, जो ब्रिटेन के गुलाम थे, आज भी क्यों लंगड़ा रहे हैं?

इसीलिए कि आज़ादी के 74 साल बाद आज भी भारत में यदि किसी को ऊँची नौकरी चाहिए, उपाधि चाहिए, सम्मान चाहिए, पद चाहिए तो उसे अंग्रेज़ी की गुलामी करनी पड़ेगी। अंग्रेज़ तो चले गए लेकिन अंग्रेज़ी हम पर लाद गए। अंग्रेज़ के राज से भी ज़्यादा खतरनाक है, अंग्रेज़ी का राज! इसने हमारे लोकतंत्र को कुलीनतंत्र में बदल दिया है। पहले अंग्रेज़ जनता का ख़ून चूसता था, अब उसने अपनी कुर्सी पर भारतीय भद्रलोक को बिठा दिया है। जब तक शिक्षा, चिकित्सा, कानून, सरकारी काम-काज और सामाजिक जीवन से सरकार अंग्रेज़ी की अनिवार्यता यानी शहंशाही नहीं हटाएगी, उसके भारतीय भाषाओं को बढ़ाने के सारे दावे हवा में उड़ जाएंगे। आज तक दुनिया का कोई भी राष्ट्र विदेशी भाषा के ज़रिए महाशक्ति या महासंपन्न नहीं बन पाया है। इस रहस्य को सबसे पहले आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद ने उजागर किया, फिर महात्मा गांधी ने इसे जमकर दोहराया और फिर स्वतंत्र भारत में गुलामी के इस गढ़ को गिराने का तेजस्वी अभियान डाॅ. राममनोहर लोहिया ने चलाया लेकिन हमारे आजकल के कम पढ़े-लिखे नेताओं में इतना आत्म-विश्वास ही नहीं है कि वे अंग्रेज़ी की अनिवार्यता के ख़िलाफ़ खुला अभियान चलाएं, अंग्रेज़ीदां नौकरशाहों की गुलामी बंद करें और स्वभाषाओं का मार्ग प्रशस्त करें।

# डॉ. वेदप्रताप वैदिक

गुरुग्राम, नई दिल्ली
(डॉ. वैदिक भारत के ऐसे पहले शोध छात्र हैं, जिन्होंने ज.नेहरु वि.वि. में अब से 50 साल पहले अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिन्दी में लिखा था। वे कई विदेशी भाषाओं के जानकार भी हैं।)
22.11.2021

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