हम परिंदे…

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हम परिंदे हैं गगन के ,
जो मिल गया आसरा
किसी  दरख़्त की शाख का ,
तो उसे ही अपना समझकर
ठहर जाते हैं घड़ी दो घड़ी l
मिल जाए गर ओट पत्तों की
तो बुन लेते हैं आशियाना ,
चुनकर अरमानों के तिनके ।
बेदर्द हवा को ज़रा भी
अहसास नहीं हमारे दर्द का
वक्त -बेवक्त उजाड़ देती है घरोंदे …,
मगर बसाने का सबक वो क्या जाने
जो बस कर न रही कभी ।।
पहले तो चहक उठते थे हम भी,
हर जरा -सी बात पर …
अब शाखें बदलती रहती है अक्सर
जी लगता ही नहीं अब किसी पर …
उड़ान  भी सिमटकर रह गई ,
अब अपने ही ईर्द -गिर्द …
आ जाता है कभी पुराना संगदिल कोई
तो परत हट जाती है यादों की तस्वीर से…।
धुँधलके में भी साफ पढ़ पाते हैं
अक्षर दर -अक्षर हम तहरीर से …
अब न दरख़्त हमारा रहा ,न आसमाँ ,
बदलता जा रहा है सारा   समां …
रुत भी बेरुत आती है अब ,
मौसम ,बेमौसम आ जाता है …
बरखा में बूँदों को तरसें
पूस का बादल छा जाता है ।।
ऐसे हाल  में परिंदों को
सुख -चैन भला कब आता है …
हम परिंदों का जीवन  `मनु` बस
डाल -डाल कटता जाता है ।।

                                                             #मनोज कुमार सामरिया ‘मनु'

परिचय : मनोज कुमार सामरिया  `मनु` का जन्म १९८५ में  लिसाड़िया( सीकर) में हुआ हैl आप जयपुर के मुरलीपुरा में रहते हैंl बीएड के साथ ही स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य ) तथा `नेट`(हिन्दी साहित्य) भी किया हुआ हैl करीब सात वर्ष से हिन्दी साहित्य के शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं और मंच संचालन भी करते हैंl लगातार कविता लेखन के साथ ही सामाजिक सरोकारों से जुड़े लेख,वीर रस एंव श्रृंगार रस प्रधान रचनाओं का लेखन भी करते हैंl आपकी रचनाएं कई माध्यम में प्रकाशित होती रहती हैं।

 

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