मजबूरी और मजदूरी

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वो मजबूर हुआ,
मजदूर बना…
कंधों पर जीवन का बोझ
पुस्तकों का बस्ता दूर हुआ ।

गुमनाम अंधेरे में,
एक मुरझाया नन्हा सा फूल
जिन हाथों में कॉपी- कलम होनी थी
वे साफ कर रहे –
ढाबे पर जूठें थाली, प्लेट, गिलास…

जिसे ममता के आंचल में पलना था
वो मोटे सेठ की गाली खाता है ।
पेट की खातिर सब सपने चूर हुए
नन्हें हाथों की लकीरें बिलख रहीं…
अपनों के सब साये दूर हुए ।

कानून सभी झूठे हैं –
मैंने तो आगरा के न्यायालय परिसर में,
मासूमों को चाय बेचते देखा है
मालिक की गाली खाते देखा है,
भारत के भविष्य को मरते देखा है ।

सरकार कोई ऐसी आए,
जो मासूमों की आंखों में चमक लाए
मजबूरी और मजदूरी दोनों को समझे…

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
फतेहाबाद, आगरा

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