उफ्फ

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गंगा यमुना के घाटों पर,
हैं लाशों की चादर बिछी हुईं।
रेत के ढेरों में ना जाने,
हैं कितनी लाशें छिपी हुईं।

नोंच खा रहे कुत्ते जिनको,
क्या उनका कोई वजूद नहीं?
देख दुर्दशा मानव की ये,
मिलता नहीं सुकून कहीं।

कफ़न मिले ना लाशों को,
चिता की अग्नि नसीब नहीं।
इस मानव काया को अब,
इज्जत की मौत नसीब नहीं।

ये मन्जर देख रूह काँपे,
क्या हम यूँ ही फेंके जाएँगे?
गंगा यमुना के घाटों पर,
क्या हम भी नोचें जाएंगे?

शर्मसार हुई मानवता,
ये कैसा दुर्व्यवहार हुआ?
इन्सानों में इंसानियत का,
देखो कत्ले आम हुआ।

सहमी हैं गंगा यमुना भी,
मन उदासी छाई है।
ना जाने ये कैसा संकट,
कैसी ये रुसवाई है?

फट रहा कलेजा घरती का,
व्याकुलता है सांसों में।
जिनको गोद में मैंने खिलाया,
वो आज पड़े हैं लाशों में।

गोद पड़ रही छोटी अब,
कैसे लाशों को समाऊं मैं?
सुकूँ मिले ना कहीं भी अब,
कैसे खुद को समझाऊँ मैं।

स्वरचित
सपना (सo अo)
प्राoविo-उजीतीपुर
विoखo-भाग्यनगर
जनपद-औरैया
उत्तर प्रदेश

matruadmin

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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