माँ नाम तभी तो भारी है

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जिस दर्द से तू अनभिज्ञ रहा,
हर माह सहन वह करती है।
गर्भ से बाहर लाने तक,
अक्षम्य पीड़ा को सहती है।।

माहवारी जिसे नापाक कहा,
नींव अस्तित्व की रखती है।
सुख-दुःख में एक समान रहे,
हर सुख तुझमे ही भरती है।।

सौंदर्य का त्याग सदा करती,
नौ माह पेट मे रखती है।
दुःख को पतझड़ वह मान सदा,
बसंत तुझमे ही भरती है।।

त्याग उसी से शुरू हुआ,
प्यार उसी से जारी है।
कदमों में स्वर्ग बसा उसके,
माँ नाम तभी तो भारी है।।

क्यों कहता है वह नारी है,
पितृ सत्ता की अधिकारी है।
भूल गया तू जननी को,
दूध के कर्ज़ की बारी है।।

ज़हीर अली सिद्दीक़ी
मुम्बई-महाराष्ट्र

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