गुलाब रह गए

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मिलते रहे ख्वाबों ख्यालों में,
नजर आते रहे तुम नकाबों में।
उतर गई खुशबू साँसों में, गुलाब रह  गए   हाथों में।
थामकर दामन बिछुड़ गए,
अहसास रह गए हाथों में।
 न थे खफ़ा तुम मगर ,
 पास आए न रातों में।
 काटकर वीरानियाँ रातों की,
 सो गए दिन के उजालों में।
 हो गईं खुशियाँ मयस्सर हमें,
 याद आए तुम जो आहों  में।
#विवेक दुबे

परिचय : दवा व्यवसाय के साथ ही विवेक दुबे अच्छा लेखन भी करने में सक्रिय हैं। स्नातकोत्तर और आयुर्वेद रत्न होकर आप रायसेन(मध्यप्रदेश) में रहते हैं। आपको लेखनी की बदौलत २०१२ में ‘युवा सृजन धर्मिता अलंकरण’ प्राप्त हुआ है। निरन्तर रचनाओं का प्रकाशन जारी है। लेखन आपकी विरासत है,क्योंकि पिता बद्री प्रसाद दुबे कवि हैं। उनसे प्रेरणा पाकर कलम थामी जो काम के साथ शौक के रुप में चल रही है। आप ब्लॉग पर भी सक्रिय हैं।

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