कल आज और कल

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एक वो जमाना था
जिसमें आदर सत्कार था।
एक ये जमाना है
जिसमें कुछ नहीं बचा।
दोनों जमाने में यारो
अन्तर बहुत है।
इसलिए तो घरों में
अब संस्कार नहीं बचे।।

मांबाप छ: बच्चों का
पालन पोशण कर देते थे।
और छ: बच्चे मिलकर
मांबाप को नहीं रख पाते।
उन्हें बृध्दाश्रम में छोड़कर
अपना फर्ज निभाते है।
और फिर भी पुत्र
उन्ही के कहलाते है।।

यही काम माँबाप ने
बच्चों के साथ किया होता।
और यश करने के लिए तुमसे मुंह मोड़ लेते।
और छोड़कर पालनघर में
अपना फर्ज निभाते।
तो क्या आज तुम
इस मुकाम पर पहुंच पाते।।

कितनी सोच का अंतर
तब अब में हो गया।
रिश्तो में भी मिठास
अब वो कहा बची।
ये सब कुछ आज की चकाचौंध का असर है।
इसलिए बच्चे मांबाप को अपने से दूर कर रहे है।।

हमें अब दिखाने लगा है
दायित्वों कर्तव्यों का अंतर।
इसलिए तो खुदके बच्चो को भी आया पाल रही है।
तो फिर कैसे दिलमें रहेगा
मांबाप के लिए अपनापन।
इसलिए तो बड़ेबूढ़े कह गये
जो बोया है वही तो काटोगे।
और खुदको भी आश्रम में
अपने मांबाप की तरह पाओगें।।

जय जिनेन्द्र देव
संजय जैन (मुम्बई)

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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