
आज सुबह दर्पण हँसकर मुझसे बोला।
“हिम्मत है तो नज़र मिलाकर देखो ना,
मैं दिखलाता हूँ वैसा, जैसे तुम हो,
क्या तुमने भी कभी हृदय अपना खोला?”
दर्पण ने उपहास उड़ाया ज्यों मेरा।
“ताँक – झाँक करना तेरी आदत गंदी,
बिना बुलाये कहीं नहीं जाता हूँ मैं,
लोभ – मोह से हीन, नहीं मेरा – तेरा।।”
मैं घबराया हूँ दर्पण की हिम्मत से।
मैं कायर,निर्भीक बहुत बलशाली वह,
चूर – चूर होने को तत्पर रहता है,
किन्तु विमुख होता ना अपनी आदत से।।
हे दर्पण! तुमको है मेरा लाख नमन।
इसी तरह अपनी गरिमा कायम रखना,
मैं मानव हूँ, बहुत बुराई है मुझमें,
अवध समर्पित करता तुमको नेह सुमन।।
डॉ अवधेश कुमार अवध