दहला

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दो जोड़ी कदमों को पास आते देखा तो सड़क के कोने के चबूतरे  पर रखी रोटी और एक सिक्का सावधान हो गए।

“देखना, अब ये झगड़ा करेंगे”सिक्के ने कहा तो रोटी ने सहमति व्यक्त की”,हाँ, हो सकता है । 

“बात मेरी हो रही है ,झगड़ा मुझे लेकर होगा,तुम्हे कौन पूछता है?”सिक्के ने हिकारत से रोटी को देखते हुए कहा।

“गर दोनो आगन्तुक भूखे होंगे,बहुत ज्यादा भूखे, “रोटी ने आत्मविश्वास से कहा”तो बात और घटना सिर्फ मुझ पर केंद्रित होगी,और हां मुझे लेकर झगड़ा नही, समझौता भी हो सकता है,मेरे” रोटी ने दहला मारा, “टुकड़े हो सकते हैं।”

#संतोष सुपेकर, उज्जैन

#परिचय:
सन्तोष सुपेकर, उज्जैन

1986 से सतत लेखन , अब तक 6 लघुकथा संग्रह, 3 कविता संग्रह प्रकाशित। रचनाएँ कई भाषाओं में  अनुदित। दो लघुकथाएं महाराष्ट्र सरकार के 10 वी के पाठ्यक्रम में स्वीकृत ।

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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