गाफ़िल(पुस्तक समीक्षा)

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किताब का नाम -गाफ़िल
लेखक – सुनील चतुर्वेदी
प्रकाशक -अंतिका प्रकाशन
मूल्य – 140 रु

हम सब गाफ़िल हैं।

यही सच है खोए हुए हैं न जाने कहाँ ।यह अहसास सौ गुना बढ़ गया जब सुनील चतुर्वेदी जी का उपन्यास पढा गाफ़िल ।

नायक अपनी अर्द्ध चेतना में है बीते दिनों को याद कर रहा है अपने खोए हुए रिश्तों को ढूंढ रहा है समझ भी रहा है गलती उसकी है उसने पैसों को कमाने की तम्मना की ।आगे बढ़ने और एक बेहतर जीवन को पाने की इच्छा रखी और उसके लिए मेहनत भी की ।
फिर जब आगे बढ़ गया तब पिता के खून पसीने को हिकारत से देखा ,माँ के अभावों और उनके निस्वार्थ प्रेम को भूल गया ,दादी का आशिर्वाद और उनके आँचल को भूल गया ।बहन ने देखा हर कदम पर उसके साथ अन्याय हुआ और भाई उसके सहने की पीड़ा को भूल गया । एक प्रेम उगा था ।उस प्रेम की दूब की ओस को भूल गया ।
उसे याद रही केवल वह सामाजिक स्तिथि ,जिससे उसने निकलना चाहा और आगे बढ़ना चाहा ।
कुछ गलत नही ,आगे बढ़ना ,पैसे कमाना ,अच्छा रहन सहन अपनाना कहाँ गलत है ?

गलत है ….गलत है अगर उसमें अपनों का साथ नहीं ,उस पसीने की महक नहीं जिसे बहाने वालों ने पानी की कमी होने के बावजूद शिकायत नहीं की ।
गलत है तो उस साथ को छोड़ना जिस साथ कि बदौलत वह गरीबी के महासागर से निकला ।

आगे बढ़ना अपनों के साथ के साथ भी हो सकता है ।
तरक्की करना गलत नहीं अकेले हो जाना तरक्की करते हुए यह गलत है ।
पैसा कमाना गलत नहीं उन पैसों से अपनों की मुस्कुराहट ना खरीदी जा सके तब यह गलत है।
जहालत का साथ देना ठीक नही उससे बाहर आना भी गलत नही उससे नफरत करना भी गलत नही लेकिन उसे दूर करने के उपाय न करना जबकि तुम सक्षम हो ,यह गलत है।

प्यार सभी को होता है अमूमन लेकिन एक सही व्यक्ति से प्यार होना नेमत की बात है उस व्यक्ति को अपनी महत्वकांक्षा और बड़बोले पन से गँवा देना गलत है ।

अपनी मरती हुई माँ को जीते जी कोई सुख न दे पाना गलत है जबकि औलाद को देख पाना ही माँ का सबसे बड़ा सुख है उसे इस सुख से वंचित करना ही गलत है।

पिता का साधारण होना उनकी मजबूरी थी मर्जी नहीं ,पिता की मर्जी थी मेहनत से इतना पैसा कमाए जिससे बेटा पड़ लिख सके और इस दौरान उसे कोई कमी न रहे ।इस कमी की दरार को बाद में अपनी कमाई से न भर पाना पुत्र की विवशता नही थी उसकी मर्जी थी उसकी यह मर्जी गलत है ।

ऊपर उठने की अंधी दौड़ में बहन को अपने सपनों की बलि देनी पड़ी उस बलि के छींटे उसके दामन पर रह गए होते है उन छीटों को न धो पाना नायक की गलती है ।
आसपास के निस्वार्थ प्रेम को निचले दर्जे की मानसिकता समझना यह गलत है ।
नायक सिर्फ परिवार का नहीं बल्कि कई लोगों के स्नेह का कर्जदार था और जो लोग कर्जा नहीं चुकाते वह अवश्य ही किसी न किसी तरह उसके बोझ तले दब ही जाते हैं ।और यह पहाड़ एक दिन इतना बड़ा हो जाता है कि सांस लेना भी दूभर हो जाता है ।

साँस ले भी ली जाए तो सिर्फ साँस लेना ही तो ज़िंदगी नहीं।

इस उपन्यास के बाद आप रात भर सो नहीं पाएंगे आपको अपने छूटे हुए लोग याद आएंगे जब कुछ नही था ।बीमारी थी तो दवा भी थी ।कप ना होने पर भी चाय का इंतज़ाम हुआ करता था ।कुर्सी न होते हुए भी उस बैठने का सुख भी था।

दूसरी ओर अस्पताल है दवाइयों की सड़ांध को फिनाइल से भले ही भागा दिया जाए युवा dr की गंदी और छिछोरी सोच ,मैनेजर की जालसाज़ी और सबसे बढ़कर इस भगवान के अवतार समझे जाने वाले पेशे की बदबू कैसे दबा पाएंगे ।

एक मोड़ है “फिर…”
इस फिर को गुनगुनाते रहना चाहिए ।

अकेले कमरे के अपने दुख है और अस्पताल के कमरे के अपने ।हर सुख की सघनता एक दिन मद्धम पड़ जाएगी अगर साथ नही है ।

समय रहते न समझ सकने के अपने दुख है उसी दुख की गाथा है ग़ाफ़िक।

#रश्मि मालवीय

परिचय: रश्मि मालवीय इंदौर(मध्यप्रदेश)समाज शास्त्र में परास्नातकलाइब्रेरी साइंस में स्नातकशिक्षा में स्नातकपिछले 13 वर्षों से पुस्कालयध्यक्ष के पद पर कार्यरत व हिंदी  साहित्य से लगाव है |कई पत्रिकाओं एवं  वेब पत्रिकाओं में कविता प्रकाशित होती है|

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