
कभी मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी /आंचल में है दूध आंखों में पानी। लेकिन आज पूरे विश्व जिस तरह से महिलाएं हर क्षेत्र में बढ़ती जा रही है। शासन-प्रशासन पर मजबूती से काबिज होती जा रही हैं। तब ऐसे में कहीं-कहीं उनके दबदबे से पुरुष समाज आहत हुआ है। शोषित हुआ है। उसके अधिकारों का हनन हुआ है।हमारा संविधान जब समानता की बात करता है तो पुरुषों के साथ होने वाले भेदभावों की चर्चा क्यों न की जाए। जब आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को मनाते हुए महिलाओं के अधिकार, लैंगिक समानता और उनकी उपलब्धियों की हम चर्चा जोर-शोर से करते हैं फिर हम लोग पुरुष दिवस पर पुरुषों की समस्याओं और उपलब्धियों पर क्यों मौन साध लेते हैं। पिता के रुप में, पति के रुप में, पुत्र के रुप में व अन्य सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करने वाले पुरुषों की महत्ता पर अगर विमर्श न हुआ तो उनके महत्व को सिरे से नकारना ही होगा। अगर पुरुषों की समस्याओं की बात की जाए तो आंकड़े बतातें हैं कि अमूमन 76 फीसदी आत्महत्याएं पुरुष करतें हैं। 85 फीसदी पुरुष बेघर होते हैं। 70 फीसदी हत्याएं पुरुषों की होती है। 40 फीसदी घरेलू हिंसा के शिकार पुरुष रहे। पुरुष दिवस के बारे उनके शोषण के बारे में
शिकोहाबाद के वरिष्ठ व्यंग्यकार अरविंद तिवारी का कहना है कि कई दहेज और शोषण के फर्जी मुकदमें तो तमाम पुरुषों की जिंदगी ही तबाह कर देतें हैैं। आज बड़े पदो पर पहुंच कर महिलाएं भी पुरुषों का शोषण करतीं हैं। इस संदर्भ में फतेहपुर के युवा कवि फिल्म निर्देशक शिव सिंह सागर का कहना है कि संविधान ने सबको अपनी बात कहने का अधिकार दिया है। अगर पुरुष अपने अधिकारों या समस्याओं को लेकर पुरुष दिवस मनाते हैं तो इस लोकतांत्रिक देश में सबको इसमें बढ़-चढ़ भागीदारी करनी चाहिए। लखीमपुर के युवराज दत्त महाविद्यालय के चीफ प्रॉक्टर प्रोफेसर डॉo सुभाष चन्द्रा कहते हैं कि भारत जैसे हमारे देश में महिलाएं अभी भी काफी पिछड़ी हुई हैं, यहां महिला दिवस तो मनाना चाहिए पर पश्चिम का थोपा हुआ पुरूष दिवस नहीं मनाना चाहिए। हां कई मंचों से पुरुष अपने शोषण की बात जरूर करें। अपनी समानता की बात करें। डॉ० राकेश माथुर का कहना है कि पौरुषयुक्त मनुष्य ही पुरुष की गणना में आता है। रही बात पुरुष दिवस मनाने की तो मनाते रहे, जीवन जीने का नाम है। मथुरा से प्रकाशित मासिक पत्रिका डिप्रेस्ड एक्सप्रेस के संपादक डी० के० भास्कर कहतें हैं कि भारत पुरुषवादी दकियानूसी सोच वाला देश है। अगर यहां अलग से पुरुष दिवस मनाया जायेगा तो कहीं न कहीं नारी स्वातंत्र्य से आहत और कुंठित सोच का प्रकटीकरण ही कहा जायेगा। कवि और शिक्षक डॉ० शैलेश गुप्त “वीर” का मानना है पुरुष और स्त्री दोनों सृष्टि के महत्वपूर्ण अंग हैं। वर्तमान समय में दोनों के मध्य अहम और अस्तित्व की कुछ पहेलियां सीमा से अधिक उलझ गईं हैं। इसलिए दोनों पक्ष के विमर्श की आवश्यकता है। कवयित्री डॉ० मृदुला शुक्ला कहतीं है कि पुरुषों की समाज में महती भूमिका है। अगर हम अपनी बात कह सकतें हैं। अपना दिवस मना सकते हैं तो पुरुषों को भी अपना एक दिवस मनाना चाहिए।
दरअसल अंतरराष्ट्रीय पुरूष दिवस की शुरुआत 1999 से त्रिनिदाद एवं टोबागो से हुई थी। विश्व के करीब 30 देश तब से 19 नवंबर को अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाते हैं और संयुक्त राष्ट्र ने भी इसे मान्यता देते हुए इसकी सराहना करते हुए मनाने की बात कही है और सहायता करने की पुरजोर वकालत की है।
कभी मी टू के बहाने, कभी दहेज हिंसा , अन्य या मामलों में बेगुनाह फंसे पुरुषों का विमर्श अगर पुरुष दिवस के बहाने हो सका और साथ ही उनकी उपलब्धियों की चर्चा अगर हो सकी तो यह एक अच्छी पहल मानी जायेगी।
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#सुरेश सौरभ
लखीमपुर खीरी