धरोहर

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arati priydarshini

“राघव ,इधर आओ …देख लो सब; पिताजी के सारे कपड़े मैंने वृद्ध आश्रम में देने के लिए निकाल दिए हैं। बाकी जो सामान है उसे भी देख लो क्या रखना है और क्या नहीं। मुंबई जाने से पहले मैं सारे काम निपटा लेना चाहती हूं। और हां….. सबसे पहले इन किताबों का कुछ करो, मुझे तो इन्हें छूने में भी कोफ्त हो रही है।”—-  इससे पहले की ज्योति और भी कुछ कहती मैंने किताबों की अलमारी खोल डाली। धूल और कुनैन की महक पूरे कमरे में फैल गई। पिताजी किताबों को दिमक और चूहों से बचाने के लिए अक्सर अलमारी में फिनायल की गोलियां रखा करते थे। पिताजी को गुजरे एक महीना हो गया था। तब से किसी ने भी आलमारी को हाथ नहीं लगाया था।

                       ” मेरी मानो तो यह सब रद्दी वाले को दे देते हैं वैसे भी आजकल यह किताबें पढ़ता कौन है ? ….यहां पर  रहेगा तो चूहे ही खाएंगे।”—-  ज्योति ने सलाह दी और रसोई में चली गई।
सच ही तो कह रही है ज्योति ; आजकल किताबें पढ़ता कौन है ? लैपटॉप, नोटबुक और ई-बुक्स जैसे अत्याधुनिक डिवाइस की कमी नहीं थी घर में। मैं खुद भी तो इन सब चीजों का आदि हो चुका था।
मां और पिताजी दोनों को पुस्तकें पढ़ने का बहुत शौक था ।लेकिन पिताजी जहां साहित्य किताबों के शौकीन थे तो मां पारिवारिक एवं महिला पत्रिकाएं पढ़ा करती थी। जो किताबे माँ पढ़ती थी उस पर मां का नाम लिखा होता और जो किताबें पिताजी पढ़ते थे उस पर पिताजी ने अपना हस्ताक्षर किया हुआ था।  मैंने कुछ किताबें उठा ली और वहीं बैठ कर उसके पन्ने पलटने लगा । उन किताबों के स्पर्श से मुझे सुकून का अहसास हो रहा था। तभी मुझे एक फटा हुआ पन्ना दिखाई दिया, जिसे आटे की बनी लेई से चिपकाया गया था। अचानक मेरी आंखो के सामने एक दृश्य उभर आया । एक दिन जब माँ पढ़ रही थी और मैंने अचानक से किताब उनकी हाथों से छीन लिया था तभी यह पन्ना फट गया था ।उस वक्त तो मां ने मुझे बहुत डांटा  मगर बाद में उन्होंने अपनी गोद में मुझे बिठाकर इसे चिपकाया था। मैंने उस पन्ने पर हाथ फिराया तो ऐसा लगा जैसे मैं मां की गोद में बैठा हूं, और मां मुझे प्यार से देख रही है।
“….. और यह “मानसरोवर….” इस पर तो पिताजी का नाम लिखा है।” पन्ने पलटते हुए मुझे उसमें दो रुपए के कुछ नोट मिले। मुझे याद आया कि पिताजी अक्सर बताया करते थे ताऊजी मौका पाते हीं उनके रूपए छीन लेते थे ,ताकि वह फिल्में ना देख पाए । इसलिए पिताजी रुपए किताबों में छिपा कर रखते थे, और छिपकर फिल्में भी देख आते थे। यह किताब के पिछले पन्ने पर उनकी चोरी-छिपे देखे गए फिल्मों का विवरण भी लिखा हुआ मिला।
मैं किताबों को पलटने में इतना रम गया था ,कि मुझे अपने आसपास मां और पिताजी के होने का आभास होने लगा था। उनका का अक्स हर पन्ने में साफ झलक रहा था। किताबों के आखिरी पन्ने पर पिताजी की लिखी हुई टिप्पणी….. कथानक एवं भाषा शैली की आलोचना…… कथा के पात्रों का चरित्र चित्रण….. इन सब से पता चलता था कि पिताजी किसी किताब को कितनी गहराई से पढ़ते थे।
” अरे  ! यह तो बिल्कुल वही डिजाइन है जो माँ ने बचपन में मेरे लिए बुना था। मैरुन और पीले रंगों से……”  शायद इस किताब से पढ़ कर ही वह स्वेटर बनाया था  मां ने ,जिसे पहली बार पहन कर मैं खुशी से फूला न समाया था। और माँ तो अपने लाल को देख कर ही गदगद हुई जा रही थी।…… और यह लौकी के कोफ्ते की रेसिपी पढ़ कर तो मेरे मुंह में मां के हाथों से बनी लौकी के कोफ्ते का स्वाद घुल गया। मां इन किताबों में से पढ़ कर अक्सर नए-नए व्यंजन बनाया करती थी ,और हम उंगलियां चाट-चाट कर खाया करते थे। बहू के हाथ का बना स्वादिष्ट खाना खाने की आस लिए, बहू के आने से पहले ही मां इस दुनिया से चली गई। अब तो मुझे भी रसोइए के हाथ का बना खाना खाने की आदत हो गई है, क्योंकि ज्योति के लिए नौकरी और रसोई दोनों संभालना नामुमकिन है।
मैं उन किताबों के पन्ने पलटता जा रहा था और मुझे उसका  एक एक पन्ना मां पिताजी के साथ गुजारे गए एक एक पल के समान लग रहे थे। अब मुझे पता चला है कि मां के गुजरने के बाद भी पिताजी मां के पसंद की महिला पत्रिकाएं क्यों खरीदते थे। एक बार मैंने पिताजी से कहा भी था कि आप यह सारी किताबें हटा दीजिए पुरानी हो गई है। मैं आपके लिए एक कंप्यूटर खरीद देता हूं उसमें इंटरनेट के माध्यम से आप जो चाहे पढ़ सकते हैं। लेकिन पिताजी ने मना कर दिया था; कहा था , “उंगलियों से किताबें पलटने में जो आनंद है वह माउस की क्लिक करने में कहाँ ! ” आज मुझे उनके शब्दों की भावनात्मक सार्थकता महसूस हो रही है।” डैडी.!…आप ग्रैंडपा की किताबों में क्या खोज रहे हैं?”—-  सनी की आवाज सुनकर मैं अतीत से वर्तमान में लौट आया।
”  कुछ नहीं बेटा बस मां और पिताजी को महसूस कर रहा था इन पन्नों में…. और यह देख बेटा है जब तू पहली बार अपने दादा जी से मिलने यहां आया था तो तूने इस किताब पर अपनी कलर पेंसिल से आरी-तिरछी लकीरें खींच दी थी”—-  मैंने सनी को वह किताब दिखाते हुए कहा।
” सच पापा ! यह लाइन्स  मैंने बनाया है बचपन में….?”—-  सनी ने आश्चर्य मिश्रित शब्दों में मुझसे पूछा।
“…. और पता है , इस बात के लिए जब मैंने तुझे डांटा तो पिताजी ने कहा कि, यह सनी की पहली लिखावट है । इसे मैं हमेशा अपने पास रखूंगा। जब तुम लोग चले जाओगे तो इसे ही देखकर मैं सनी को याद कर लिया करूंगा”—-  सनी को यह सब बताते हुए मेरी आंखें छलछला आई।
मेरे आंसू देखकर ज्योति और सनी भी भावुक हो गए।
” ज्योति , क्या हम इन किताबों को अपने साथ मुंबई नहीं ले जा सकते …..?म… मैं…. इन्हें अपने स्टडी रूम में रख लूंगा.. तब तो तुम्हें कोई प्रॉब्लम नहीं होगी ना .? मैं  लगभग  गिड़गिड़ाते हुए बोला।” तुम इस तरह क्यों पूछ रहे हो राघव…? यह सच है कि किताबें पढ़ने में मेरी कोई रुचि नहीं है लेकिन तुम्हारी भावनाओं का ख्याल है मुझे। हमने एक दूसरे की भावनाओं को समझ कर ही तो प्यार किया था। और वह घर तुम्हारा हीं है। तुम जो चाहे, जैसे चाहे, रख सकते हो।”—–  ज्योति ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा।
“ओके ….ओके ….अब अगर आप लोगों का यह इमोशनल ड्रामा खत्म हो गया हो तो हम इन किताबों की पैकिंग शुरू करें”—–  सनी ने फिल्मी अंदाज में कहा तो हम दोनों ही शरमा गए।
” यह काम आप दोनों के बस का नहीं है ।आप लोग कोई और काम कीजिए। मैं इन किताबों को बस 2 मिनट में पैक किए देता हूं।—- सनी ने मेरे हाथ से किताबे लेते हुए कहा।
मैंने जब सनी को पिताजी की किताबें संभालते हुए देखा तो ऐसा लगा जैसे पिताजी मुस्कुराते हुए कह रहे हों —— ” देखा ना…. मेरी धरोहर संभालने वाला असली वारिस मिल गया… मेरा पोता…. इसलिए मैं हमेशा कहता था कि मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है।
और सचमुच सनी ने एक धरोहर की तरह उन किताबों को संभाला ही नहीं बल्कि मुंबई पहुंच कर उनको अपनी स्टडी रूम में सजाया भी।

#आरती प्रियदर्शिनी , गोरखपुर

परिचय
पूर्ण नाम— आरती प्रियदर्शिनी
साहित्यिक उपनाम —- प्रियदर्शिनी
वर्तमान पता—गोरखपुर (उ.प्र.)
भाषा ज्ञान—- हिन्दी
राज्य/प्रदेश— उत्तरप्रदेश
ग्राम/शहर— गोरखपुर
पूर्ण शिक्षा—-हिन्दी से स्नातकोत्तर एवं ignou से  diploma in creative writing in Hindi (D.C.H.)
कार्यक्षेत्र—-  “वर्तमान अंकुर दि मैगजीन” पत्रिका मे उप संपादक
लेखन विधा—- कहानी
कोई प्रकाशन हुआ— साझा संग्रह “दीप देहरी पर “, “रिश्तों के अंकुर”, “एवं ” काव्यअंकुर”

रचनाएं प्रकाशित हैं—- सुमन सौरभ , सरिता , गृहशोभा,  
कादम्बिनी,वनिता,गृहलक्ष्मी आदि मे कहानियां तथा निबंध       प्रकाशित 

प्राप्त सम्मान—–    गृहशोभा के फेसबुक पेज पर “आनलाईन कविजयी सममेलन” मे पुरस्कृत दो कविताओं (क्यों छली जाती हो तुम , तथा कैसे कहें नववर्ष है आया ) का प्रसारण।

वनिता कहानी प्रतियोगिता मे मेरी कहानी “सुनहरे पल” तथा “अपनी सौतन के लिए” को सांत्वनापुरस्कार।

गृहलक्ष्मी के मार्च 2018 अंक मे “फैन आफ द मंथ ” का सम्मान।
वर्तमान अंकुर के द्वारा “कथा गौरव” एवं”काव्य रश्मि” सम्मान।

विशेष उपलब्धि—- वनिता द्वारा लगातार दो वर्षों तक पुरस्कृत होना
लेखनी का उद्देश्य——- आत्मिक संतुष्टि एवं अपनी रचनाओं के माध्यम से महिलाओं का हौसला बढ़ाना।


 

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संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।