परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन

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chandresh chatlani

 समीक्षा: परिंदे पत्रिका “लघुकथा विशेषांक”

पत्रिका : परिंदे (लघुकथा केन्द्रित अंक) फरवरी-मार्च’19
अतिथि सम्पादक : कृष्ण मनु
संपादक : डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया
79-ए, दिलशाद गार्डन, नियर पोस्ट ऑफिस,
दिल्ली- 110095,
पृष्ठ संख्या: 114
मल्य- 40/-

वैसे तो हर विधा को समय के साथ संवर्धन की आवश्यकता होती है, लेकिन लघुकथा एक ऐसी क्षमतावान विधा बन कर उभर सकती है जो स्वयं ही समाज की आवश्यकता बन जाये, इसलिए इसका विकास एक अतिरिक्त एकाग्रता मांगता है। हालांकि इस हेतु न केवल नए प्रयोग करना बल्कि इसकी बुनियादी पवित्रता का सरंक्षण भी ज़रूरी है। विधा के विकास के साथ-साथ बढ़ रहे गुटों की संख्या, आपसी खींचतान में साहित्य से इतर मर्यादा तोड़ते वार्तालाप आदि लघुकथा विधा के संवर्धन हेतु चल रहे यज्ञ की अग्नि में पानी डालने के समान हैं।

कुछ ऐसी ही चिंता वरिष्ठ लघुकथाकार कृष्ण मनु जी व्यक्त करते हैं अपने आलेख “तभी नई सदी में दस्तक देगी लघुकथा” में जो उन्होने बतौर अतिथि संपादक लिखा है परिंदे पत्रिका के “लघुकथा विशेषांक” में। अपने ग्यारहवें वर्ष में प्रवेश करती हुई परिंदे पत्रिका ने साहित्य की सड़कों पर लगातार बढ़ रहे लघुकथाओं के छायादार वृक्षों द्वारा अन्याय-विसंगति आदि की तपाती हुई धूप में भी प्रज्ज्वलित चाँदनी का एहसास करा पाने की क्षमता को समझ कर इस विशेषांक का संकल्प लिया होगा और उसे मूर्त रूप भी दे दिया और यही संदेश मैंने पत्रिका के आवरण पृष्ठ से भी पाया है।

अपने आलेख में कृष्ण मनु जी ने कुछ बातें और भी ऐसी कही हैं, उदाहरणस्वरूप, “विषय का चयन न केवल सावधानी पूर्वक होना चाहिए बल्कि जो भी विषय चुना हो चाहे वह पुराना ही क्यों न हो उस पर ईमानदारी से प्रस्तुतीकरण में नयापन हो – कथ्य में ताज़गी हो।”, “लघुकथा के मूल लाक्षणिक गुणों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए।”, आदि।

यहाँ मैं एक श्लोक उद्धृत करना चाहूँगा,
“स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्॥
अर्थात किसी व्यक्ति को आप चाहे कितनी ही सलाह दे दो किन्तु उसका मूल स्वभाव नहीं बदलता ठीक उसी तरह जैसे ठन्डे पानी को उबालने पर तो वह गर्म हो जाता है लेकिन बाद में वह पुनः ठंडा हो जाता है।“

यही बात लघुकथा पर भी लागू होती है और इस पत्रिका के अतिथि संपादक के लेख के अनुसार भी लघुकथा के मूल गुणों को सदैव लघुकथा में होना चाहिए अर्थात प्रयोग तो हों लेकिन मूलभूत गुणों से छेड़खानी ना की जाये, पानी को उबालेंगे तो वह गरम होकर ठंडा होने की प्रकृति तो रखता ही है लेकिन यदि पानी में नमक मिला देंगे तो वह खारा ही होगा जिसे पुनः प्रकृति प्रदत्त पानी बनाने के लिए मशीनों का सहारा लेना होगा हालांकि उसके बाद भी प्राकृतिक बात तो नहीं रहती। शब्दों के मूल में जाने की कोशिश करें तो अपनी यह बात श्री मनु ने कहीं-कहीं लेखन की विफलता को देखते हुए ही कही है, जिसे लघुकथाकारों को संग्यान में लेना चाहिए।

1970 से 2015 के मध्य अपने लघुकथा लेखन को प्रारम्भ करने वाले 63 लघुकथाकारों की प्रथम लघुकथा और एक अन्य अद्यतन लघुकथा (2018 की) से सुसज्जित परिंदे पत्रिका के इस अंक में प्रमुख संपादक डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया जी स्वच्छता पर अपने संपादकीय में न केवल देश में स्वच्छता की आवश्यकता पर बल दिया है बल्कि जागरूक करते हुए कुछ समाधान भी सुझाए हैं। हालांकि उन्होने लघुकथा पर बात नहीं की है लेकिन फिर भी स्वच्छता पर ही जो कुछ उन्होने लिखा है, उस पर लघुकथा सृजन हेतु विषय प्राप्त हो सकते हैं।

पत्रिका के प्रारम्भ में अनिल तिवारी जी द्वारा लिए गए दो साक्षात्कार हैं – पहला श्री बलराम का और दूसरा श्री राम अवतार बैरवा का। दोनों ही साक्षात्कार पठन योग्य हैं और चिंतन-मनन योग्य भी।

सभी लघुकथाओं से पूर्व लघुकथाकार का परिचय दिया गया है, जिसमें एक प्रश्न मुझे बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ – “लघुकथा आपकी प्रिय विधा क्यों है?” यह प्रश्न लघुकथा पर शोध कर रहे शोधार्थियों के लिए निःसन्देह उपयोगी है और यह प्रश्न पत्रिका के इस अंक का महत्व भी बढ़ा रहा है।

इस पत्रिका में दो तरह की लघुकथाएं देने का उद्देश्य मेरे अनुसार यह जानना है कि लघुकथा विधा में एक ही साहित्यकार के लेखन में कितना परिवर्तन आया है? केवल नवोदित ही नहीं बल्कि वरिष्ठ लघुकथाकारों में से भी कुछ लेखक जो चार-पाँच पंक्तियों में लघुकथा कहते थे, समय के साथ वे न केवल शब्दों की संख्या बढ़ा कर भी कथाओं की लाघवता का अनुरक्षण कर पाये बल्कि अपने कहे को और भी स्पष्ट कर पाने में समर्थ हुए। हालांकि इसके विपरीत कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं जो लघुकथा के अनुसार अधिक शब्दों में लिखते हुए कम (अर्थाव लाघव) की तरफ उन्मुख हुए। कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि सामान्यतः परिपक्वता बढ़ी है और बढ़नी चाहिए भी।

एक और विशिष्ट बात जो मुझे प्रथम और अद्यतन लघुकथाओं को पढ़ते हुए प्रतीत हुई, वह यह कि समय के साथ लघुकथाकारों ने शीर्षक पर भी सोचना प्रारम्भ कर दिया है जो कि लघुकथा लेखन में हो रहे परिष्करण का परिचायक है।

पत्रिका की छ्पाई गुणवत्तापूर्ण है, लघुकथाओं में भाषाई त्रुटियाँ भी कम हैं जो कि सफल और गंभीर सम्पादन की निशानी है। कुल मिलाकर यह एक संग्रहणीय अंक है और मैं आश्वस्त हूँ कि साहित्य, संस्कृति एवं विचार के इस द्वेमासिक के परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन, ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं।

परिचय :-
नाम: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
शिक्षा: पीएच.डी. (कंप्यूटर विज्ञान) 
सम्प्रति: सहायक आचार्य (कंप्यूटर विज्ञान)
लेखन: लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र
पत्र-पत्रिकाओं का नाम जिनमें रचनाएँ प्रकाशित हुईं
मधुमति (राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका), लघुकथा पर आधारित “पड़ाव और पड़ताल” के खंड 26 में लेखक, अविराम साहित्यिकी, लघुकथा अनवरत (साझा लघुकथा संग्रह), लाल चुटकी (रक्तदान विषय पर साझा लघुकथा संग्रह), नयी सदी की धमक (साझा लघुकथा संग्रह), अपने अपने क्षितिज (साझा लघुकथा संग्रह), सपने बुनते हुए (साझा लघुकथा संग्रह), अभिव्यक्ति के स्वर (साझा लघुकथा संग्रह), स्वाभिमान (साझा लघुकथा संग्रह), वागर्थ, लघुकथा कलश, विभोम-स्वर, नव-अनवरत, दृष्टि (पारिवारिक लघुकथा विशेषांक), दृष्टि (राजनैतिक लघुकथा विशेषांक), हिंदी जगत (विश्व हिंदी न्यास, न्यूयॉर्क द्वारा प्रकाशित), हिंदीकुञ्ज, laghukatha.com, openbooksonline.com, विश्वगाथा, शुभ तारिका, अक्षर पर्व, अनुगुंजन, क्षितिज पत्रिका लघुकथा विशेषांक अंक 9 वर्ष 2018, एम्स्टेल गंगा (नीदरलैंड से प्रकाशित), हिमालिनी (काठमांडू, नेपाल), सेतु पत्रिका (पिट्सबर्ग), शोध दिशा, ककसाड़, साहित्य समीर दस्तक, अटूट बंधन, सुमन सागर त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक राजस्थान पत्रिका, किस्सा-कृति (kissakriti.com), वेबदुनिया, कथाक्रम पत्रिका, करुणावती साहित्य धारा त्रैमासिक, साहित्य कलश त्रैमासिक, मृग मरीचिका, अक्षय लोकजन, बागेश्वरी, साहित्यसुधा (sahityasudha.com), सत्य दर्शन, साहित्य निबंध, युगगरिमा, युद्धरत आम आदमी, जय-विजय, शब्द व्यंजना, सोच-विचार, जनकृति अंतरराष्ट्रीय ई-पत्रिका, सत्य की मशाल, sabkuchgyan.com, रचनाकार (rachanakar.org), swargvibha.in, hastaksher.com, ekalpana.net, storymirror.com, hindilekhak.com, bharatdarshan.co.nz, hindisahitya.org, hindirachnasansar.com, bharatsarthi.com, अमेजिंग यात्रा, निर्झर टाइम्स, राष्ट्रदूत, जागरूक टाइम्स, Royal Harbinger, pratilipi.com, dawriter.com, नजरिया नाउ, दैनिक नवज्योति, एबेकार पत्रिका, सच का हौसला दैनिक पत्र, सिन्धु पत्रिका, वी विटनेस, नवल, सृजन सरोकार आदि में रचनाएँ प्रकाशित

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आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।