सीता

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निमि की वंशज हूँ मैं,
सूर्यवंश की परिणीता।
जो त्रैलोक्य का स्वामी है,
उसका मन मैंने जीता।।
विधि से लभ्य हुए सब साधन,
किन्तु अभाव में बीता जीवन।
सप्तपदी से सप्तजनम का,
साथ तुम्हारा प्रेय बना।
वनवास तुम्हें जब श्रेय हुआ,
मेरा भी गृह अरण्य बना।।
मेरा कब, कितना दोष रहा,
मेरा मन उत्तर खोज रहा।।
लंकेश ने हर लिया मुझे,
हर लिया गात, मन हर न सका।
वो स्वर्ण सदन का स्वामी भी,
दृष्टि तक मुझ पर धर न सका।।
मेरी मुक्ति हित जाने तुमने,
कितने कष्टों का वरण किया।
हारा वह दम्भी दशानन,
तुमने ही जय को वरण किया।।
तो क्या जीता तुमने रघुवर?
मुझ वैदेही को या कि समर।
जब अग्नि परीक्षा हुई प्रखर,
क्यों हुआ साथ अपना न अमर?
केवल एक जन के प्रलाप पर,
रघुवर ,मुझको क्यों त्याग दिया।
मेरे उदर में जो था तवांश,
उसको भी दुःख का भाग दिया।।
दाम्पत्य धर्म की नींव सदा,
विश्वास ,प्रेम को माना हैं।
मर्यादा के पुरुषोत्तम क्यों?
जनश्रुति को ज्यादा जाना है।।
पुरुष त्याग सकता वह जन,
जहाँ प्रेम सूत्र से गुम्फित मन।
क्या अग्नि परीक्षा है उचित?
विश्वास जहाँ रहता अखण्ड।।
माना तुम जन अवतारी हो,
सारी माया पर भारी हो।
 पर न्याय नारी से कर न सके,
नारी की पीड़ा हर न सके।।
#पायल शर्मा, डूंगरपुर

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