‘मी टू’:  अकबर का पाखंड और महिला अस्मिता के तकाजे

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umesh trivedi
दस महिला-पत्रकारों के यौन-शोषण के आरोप के जवाब में मोदी-सरकार के विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर के ’एरोगेंस’ पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित सभी वरिष्ठ मंत्रियों की खामोश समर्थन उन सभी कार्य-स्थलों पर महिलाओं के यौन-शोषण का लायसेंस जारी करने जैसा है। घटनाक्रम का त्रासद पहलू यह है कि मोदी-सरकार इन मामलों को कानून की कसौटियों पर तौलने पर उतारू है। महिलाओं की स्वीकारोक्ति और सीधे आरोपों के बावजूद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का यह बयान हैरान करने वाला है कि पहले इस बात की जांच होना चाहिए कि आरोप लगाने वाली महिलाओं के कथनों में कितनी सच्चाई है? संस्कृति और धार्मिक संस्कारों की दुहाई देने वाले अमित शाह के ये शब्द परेशान करते हैं।
अमित शाह के बयान ने ही अकबर को कानूनी कार्रवाई के लिए प्रेरित किया है। अकबर ने सोची समझी और डराने वाली रणनीतिक-बेरूखी के साथ उन पर यौन शोषण का आरोप लगाने वाली महिला पत्रकारों के ऊपर कानूनी कार्रवाई करने की धमकी दी है, ताकि आंदोलन का हिस्सा बन रही महिलाओं को भयभीत किया जा सके। अकबर पर यौन शोषण के आरोपों के बाद पावर-कॉरीडोर में सनसनी है। लोग डरे हुए हैं कि कोई उनपर उंगली नहीं उठाने लगे। ये डरे हुए लोग ही तर्क गढ़ रहे हैं कि यौन शोषण के दस-बीस साल पुराने मसले उठाने का नैतिक और कानूनी अधिकार और औचित्य नहीं हैं। उनका यह रक्षा कवच कच्चे धागों से बुना हुआ है।
सेक्स के गुलाबी संसार में पावर के प्रभुत्व की कहानियां छिपी नहीं हैं। सेक्स के स्कैण्डल साजिशों और स्वार्थों की संरचना से उदभूत होते हैं, जबकि एमजे अकबर जैसे लोगों की कहानियों के पीछे मध्यमवर्गीय मजबूरियों की महागाथा और मानसिक संत्रास  तिरोहित होता है। यदि दस महिला पत्रकारों ने सिर पर बदनामी-बदगुमानी का काला कफन बांधकर यौन बदसलूकी को स्वीकार किया है तो इस पर यह सवाल गलत है कि ये महिलाएं घटना के वक्त खामोश क्यों बनी रहीं?
अकबर अदालत की देहरी से बेगुनाही के तमगे के साथ वापस लौट आएंगे। महिला-ज्यादतियों के मामले मे कानून इतने सक्षम और समर्थ नहीं हैं कि महिलाओं को सम्पूर्ण सुरक्षा-कवच दे सकें। मध्य प्रदेश का ही उदाहरण लें तो हम पाएंगे कि वर्ष 2017 में राज्य की अदालतों ने  बलात्कार से जुड़े 2 हजार 199  प्रकरणों में अपना फैसला सुनाया था, जिनमें 1 हजार 765 मामलों में आरोपी बाइज्जत बरी हो गए थे। मध्य प्रदेश में मात्र 19 प्रतिशत मामलों में बलात्कार के आरोपियों को सजा होती है, जबकि अस्सी प्रतिशत छूट जाते हैं। दूसरे राज्यों में सजा का आंकड़ा इससे भी ज्यादा दयनीय है। एमजे अकबर महज इसलिए अकड़ रहे हैं कि जब मामूली अपराधी धड़ल्ले से छूट जाते है, तो मोदी-सरकार के पावरफुल विदेश राज्यमंत्री के खिलाफ डेढ़-दो दशक पुराने मामलों को कौन सी शासकीय मशीनरी सिद्घ कर पाएगी?
अकबर मुतमईन है कि कानून की अदालत से छूटने के मायने यह समाज यह मानेगा कि वो बेगुनाह हैं। यह उनकी गलतफहमी है। सवाल उन्हें कानूनी सजा मिलने का नहीं हैं, बल्कि यह है कि वे समाज का सामना कैसे करेगें? कानूनी तिकड़मों से बड़ा सवाल उन सामाजिक तकाजों का है, जिनकी बुनियाद पर समाज के संस्कार और संवेदनाएं संचालित होती हैं। इसका घृणास्पद पहलू यह भी है कि एमजे अकबर ने महिला पत्रकारों की आबरू को चुनाव की राजनीति के दांव पर लगा दिया। यौन शोषण के खिलाफ मुखर हो रही महिलाओं को एक मर्तबा फिर गूंगा बनाने की इस कानूनी-रणनीतिक पहल ने भाजपा की रीति-नीति को सवालिया बना दिया है। पुरूष प्रधान समाज में राक्षसी-जहनियत के खिलाफ  ‘मी टू’ आंदोलन महिलाओं की संघर्ष की निर्णयक शुरूआत है, जो समाज मे दोहरे चरित्र और पाखंड पर प्रहार करता है। महिला-पत्रकारों ने अपनी अस्मिता को उघाड़ कर इस पाखंड को उजागर किया है। अकबर की तरह इसे चुनाव से जोड़ना हिकारत भरी सोच है। यौन शोषण के कारोबार के लिए भाजपा जिम्मेदार नहीं है कि अमित शाह उसे डिफेंड करें। इस निजी दुष्कृत्य का खामियाजा भुगतने के लिए व्यक्ति को तैयार रहना चाहिए। इन कृत्यों को अंजाम देने वाली किसी भी हस्ती को समाज ने कबूल नहीं किया है। सार्वजनिक जीवन में ऐसे लोगों की रिकवरी कदाचित ही हो पाई है। बहरहाल, हमें केन्द्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी के बयान को तवज्जो देना चाहिए कि हमारा सिस्टम अपनी अस्मिता की कीमत पर ऐसे पाखंडों को उजागर करने वाली महिलाओं को मजाक का विषय नहीं बनाए। इन्हें गंभीरता से लेना जरूरी है। दिलचस्प है कि अकबर मानव-अधिकारों और सरोकारों के सबसे बड़े प्रवक्ता पत्रकार रहें हैं। राजनेता के रूप ने उनका पत्रकारीय पाखंड उजागर कर दिया है। उनके संस्कार कहां दफन हो गए है?
#उमेश त्रिवेदी 
 परिचय-  भोपाल (मध्यप्रदेश) निवासी उमेश त्रिवेदी जी वरिष्ठ पत्रकार एवं सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।

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