“यह तुम्हारा रोज़-रोज़ का तमाशा हो गया है। दो दिन आती हो और चार दिन छुट्टी मारती हो…कभी लड़की बीमार है, कभी लड़का और कभी खुद। काम में मन लगता नहीं, बस पैसे चाहिए। मालूम है इस महीने पूरे दो सौ पचास रूपये चढ़ गये हैं। महीना पूरा होने में अभी चार दिन बाकी हैं। अब फिर पचास रूपये माँग रही हो। आखिर करती क्या हो इतने पैसों का?”
“अ…व…वो…लल्ली का पेट रात से चल रहा है। सोचा डॉक्टर को दिखा दूँ। रातभर न खुद चैन से दो घड़ी सोई है और न मुझे सोने दिया है। इसलिए…”
“बस शुरू हो गयी। यह बताओ, इस तरह काम करने से क्या फायदा है? इससे तो अच्छा है…खैर, यह लो पचास रूपये, पूरे ढाई सौ हो गये हैं तुम्हारे ऊपर।” मालकिन ने पचास का नोट उसके आगे फेंक दिया। लखिया जैसे अन्दर से कट कर रह गयी। एकाएक उसे याद आया कि बापू के मरने पर लोग विधवा माँ के सामने ऐसे ही सिक्के और नोट फेंक रहे थे। उसने दादी से पूछा था, “ये लोग माँ के सामने ऐसे रूपये फेंक कर क्यों जा रहे हैं?” दादी ने सुबकते हुए उत्तर दिया था, “तेरी माँ विधवा हो गयी लाडो…रस्म है बिटिया…क्या किया जाए…विधवा को अभागिन मानते हैं…इसीलिए उसके आगे रूपये फेंकते हैं…जालिम दुनिया और उसकी रस्में” कहकर दादी फफक पड़ी थी। आज जब मालकिन ने उसके आगे पचास का नोट फेंका तो उसे वही दृश्य याद हो आया। उससे रहा नहीं गया। उसने तुरन्त मालकिन से कहा, “मेमसाब…नहीं देने हैं तो रहने दो…पर ऐसे फेंक कर मत दो…मैं विधवा नहीं, सुहागन हूँ,” कहते हुए उसने अपने मंगलसूत्र पर हाथ फेरा।
“अरे! रहने दे…उससे भी बुरी हालत है तेरी। आदमी मर जाए तो सब्र हो जाता है लेकिन वह तो किसी के साथ भाग गया…ऐसी-ऐसी औरतें हैं दुनिया में जो शादी-शुदा मर्दों पर डोरे डालती फिरती हैं…बाजारू औरतें…” कहकर मालकिन मुँह बनाते हुए बोलीं, “तू जो सुहागन का स्वांग रचाए और गले में मंगलसूत्र डाले घूम रही है न…ध्यान रखना अब लौट कर नहीं आएगा वह…उस वेश्या ने फाँस लिया होगा उसे अपने जाल में…हूँ…बड़ी आई सुहागन…आदमी को तो बाँध नहीं सकी…बातें करती है,” कहते हुए मालकिन अन्दर कमरे की ओर चल दी। मालकिन का ताना पत्थर से भी गहरी चोट दे गया और लखिया जिस मनदर्पण में स्वयं को सुहागन के रूप में निहारती थी वह एक ही ताने की चोट से किर्च-किर्च हो गया। रूआँसी लखिया ने पचास का नोट उठाया और “वह बाजारू औरत या वेश्या नहीं थी मालकिन…” कहते हुए घर से बाहर निकल आई।
‘भाग गया…’ उसके दिमाग में मालकिन का कहा एक-एक शब्द सैकडों मधुमक्खियों के डंक जैसा चुभ रहा था, पर मालकिन ने कुछ गलत भी तो नहीं कहा था। सच ही तो है कि उसका पति भाग गया था। लेकिन किसी वेश्या के साथ नहीं बल्कि उसकी छोटी बहन के साथ…उसे वह रात याद आने लगी…
होली के बाद की बात है, रात में ठण्डक थी। हल्की-सी बारिश भी हो रही थी। पति आटो रिक्शा किनारे लगाकर घर में घुसा। साथ में लखिया की दूर की रिश्ते की बहन रमा थी। उसे देखकर लखिया खुश हुई लेकिन रमा उससे लिपटकर रोने लगी। अचंभित लखिया को पति ने बताया कि ‘वह रोडवेज़ पर खड़ी थी। मैंने देख लिया और ऑटो में बिठाकर घर ले आया, लगता है तबियत ठीक नहीं।’ कहकर पति नहाने चला गया और रमा भी कपड़े बदलकर चारपाई पर लेट गयी। रात में पति के सो जाने के बाद लखिया और रमा बातें करने लगीं, तो रमा ने लखिया को बताया, “गाँव से शहर आने के लिए बस पकड़ने निकली ही थी कि बादल घिरने लगे। एक पल को सोचा कि लौट जाऊँ लेकिन अगले ही पल गाँव का पड़ोसी बिहारी अपनी मोटरसाइकिल से उसके पास आया और बस तक छोड़ देने की बात कहकर उसे मोटरसाइकिल पर बैठा लिया। गाँव से बाहर निकलते-निकलते बारिश शुरू हो गयी और हमें रुकना पड़ा। मोटरसाइकिल किनारे लगाकर बारिश से बचने के लिए हम दौड़कर एक झोपड़ी में चले गये। पता नहीं वहाँ जाकर बिहारी को क्या हुआ कि वह मुझे कसकर पकड़ने लगा और अपनी ओर खींचने लगा। मैंने बहुत जद्दोजहद की लेकिन…” इतना बताकर रमा लखिया से लिपटकर रोने लगी। सुबकते हुए बोली, “किस मुँह से गाँव वापस जाती, सो किसी तरह सड़क तक आ गयी और शहर आने वाली बस में चढ़ गयी। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। रास्ते भर सोचती आई कि चलती बस से कूद जाऊँ या शहर जाकर ज़हर खा लूँ। बस से उतरकर चुपचाप एक किनारे खड़ी ही थी कि जीजा ने देख लिया और घर ले आये।” लखिया ने उसे समझाया, “जो होना था सो हो गया। अब दिमाग से सारी बातें निकाल दे और चुपचाप सो जा।”
रमा लखिया के साथ ही उसके घर में रहने लगी। कुछ दिन तो सामान्य रूप से गुज़र गए लेकिन एक शाम जब वह मंदिर से घर लौटी तो कमरे में उसका पति और रमा को एक-साथ लेटा देख उसका कलेजा धक् हो गया। उसके तन-बदन में आग लग गयी। एक पल को तो उसके मन में आया कि ‘दोनों को घर से निकाल दूँ या फिर सिलबट्टे से दोनों का सिर कुचल दूँ…नहीं तो अपनी ही जान दे दूँ। क्या इसीलिए अपने घर में पनाह दी थी… मेरा ही घर तबाह करने लगी…’ उसके मन में गुस्से की आग इतनी धधक रही थी कि उस रात न चूल्हा जला और ही कोई हरकत घर में हुई। जो जहाँ था वहीं पड़ा रहा। बच्चों को जरूर उसने दोपहर के रखे चावलों में घी और नमक डालकर दे दिया। रात भर जैसे-तैसे करवटें बदलते कटी और अगली सुबह जब वह उठी तो सबकुछ बदल चुका था। न पति था और न रमा। आटोरिक्शा भी अपनी जगह पर न था। लखिया ने दोनों को ढूँढ़ने का बहुत प्रयास किया पर सब बेकार। हताश लखिया के पास केवल इन्तज़ार के अलावा कुछ नहीं था। एक दिन, दो दिन, एक सप्ताह, एक महीना…गिनते-गिनते पूरे सात महीने हो गये। न पति का कुछ पता था न रमा का। धीरे-धीरे यह बात पूरी बस्ती में आग की तरह फैल गयी कि उसका पति साली के साथ भाग गया। लखिया किसी को मुँह दिखाने का साहस न कर पाई। जो कुछ घर में था वह तीन-चार महीनों में ही बिला गया। पेट की आग को तो ईंधन चाहिए ही, सो घर-घर जाकर चौका-बर्तन का काम ढूँढ़ने लगी। जहाँ जाती उसके पति व बहन के बारे में ही बातें होने लगतीं और वह वहाँ से चल देती। बड़ी मुश्किल से उसे यहाँ काम मिला था। आज यहाँ भी मेमसाब ने तेजाब जैसे शब्दों का छिड़काव उस पर कर ही दिया।
इसी उधेड़-बुन में पता ही नहीं चला कि कब घर पहुँच गयी? पाँच साल का राजू, दो साल की नन्हीं को गोद में लिए बैठा था। देखते ही आँखें भर आईं। उसने लपककर नन्हीं को गोद में उठा लिया। और रूआँसी होकर बोली, “कैसी तबियत है मेरी गुड़िया की?…बता राजू।”
“पता नहीं अम्मा सुबह से ऐसी ही पड़ी है”, राजू ने कहा।
नन्हीं की साँसें तेज़ चल रही थीं। शरीर गर्म पड़ा था। चेहरा बिल्कुल मुरझा गया था। आँखें पथरा गयी थीं। लखिया उसके चेहरे को मलते हुए बोली, “जग में रखा शरबत पिलाया इसे, बेटा?” “हाँ माँ पिलाया…लेकिन अब नहीं पी रही है” राजू ने कहा। उसने नन्हीं को आँचल से ढँका और राजू का हाथ पकड़कर तुरन्त डॉक्टर के पास चली गयी। मरीज़ों की लम्बी कतार देखकर उसका दिल बैठने लगा। डॉक्टर से बहुत अनुनय-विनय की लेकिन डॉक्टर ने जल्दी देखने से मना कर दिया। उसकी हालत देखकर डॉक्टर भी भाँप गया था कि यह अतिरिक्त फीस नहीं दे पाएगी अतः क्यों इस पर समय खराब किया जाए? नन्हीं की हालत बिगड़ती देख लखिया डॉक्टर से मिन्नतें करने लगी। उसका गिड़गिड़ाना देखकर एक दो मरीजों का दिल पसीज गया और वे भी लखिया की ओर से डॉक्टर से निवेदन करने लगे, लेकिन पत्थर दिल वाले मरीजों का पलड़ा भारी निकला और उन्होंने आपत्ति जताई कि “हम इतनी देर से बैठे हैं और ये अभी-अभी आई है…नम्बर से ही दिखाओ…पहले नहीं।” अतः मजबूर होकर लखिया नन्हीं का मुँह देख-देखकर सब्र करके एक कोने में बैठी अपने नम्बर का इन्तज़ार करने लगी।
लगभग ढ़ाई घंटे बाद लखिया का नम्बर आ ही गया। डॉक्टर ने सबसे पहले अपनी फीस ली, तब पर्चा बनाकर नन्हीं के मुँह की तरफ देखा और नब्ज़ देखकर बोला, “अरे इसमें रहा ही क्या है? मर गयी। ले जा इसे।” लखिया को काटो तो खून नहीं। न चीखने की, न रोने की। करे तो क्या करे? किसे दोष दे? एक-दो मरीज जो अपने नम्बर का इंतज़ार कर रहे थे, “च्…च्…हाय बेचारी नन्हीं जान…” कह उठे और अफसोस जताने लगे, पर नन्हीं का जीवन लौटाने वाला कोई नहीं था। डॉक्टर ने, “जल्दी ले जाओ यहाँ से नहीं तो औरों के इन्फेक्शन हो सकता है”, कहकर नेक्स्ट की आवाज़ लगा दी।
अगले दिन पास ही की सुनार की दुकान पर गयी और सुहागन होने की निशानी मंगलसूत्र के बदले पाँच सौ रूपये ले आई लगभग दो सौ रूपये नन्हीं के क्रियाकर्म में खर्च हो गये और बाकी बचे पैसे लेकर राजू का हाथ पकड़कर मेमसाब के घर चल दी। घंटी बजाई। मेमसाब के नौकर ने दरवाजा खोला और उसे देखकर बोला, “क्या बात है लखिया? बहुत परेशान लग रही है।” लखिया ने कोई उत्तर नहीं दिया। अन्दर आकर सीधे मेमसाब के सामने ढ़ाई सौ रूपये रख दिए, “मेरा हिसाब साफ हो गया मेमसाब…कल से नहीं आऊँगी,” कहकर लखिया राजू का हाथ थामे घर से बाहर निकल आई।
डॉ लवलेश दत्त
बरेली(उत्तरप्रदेश)