हिन्दी की मुख्यधारा से दूर हो रहा आदिवासी विमर्श

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arpan jain

सदा सनातन से ही सांस्कृतिक तारतम्यता और विविधता के कारण भारत की संस्कृति की पहचान वैश्विक पटल पर स्थापित है, इसी तारतम्यता में कथा, कहानी, कविता, लोकोक्ति, गान, भजन, या अन्य साधनों द्वारा सांस्कृतिक तत्वों और परम्परा का संचार किया जाता रहा है। इन्हीं परम्पराओं में भारत की वाचिक परंपरा के हस्ताक्षर के रूप में शामिल रहा आदिवासी विमर्श आज हिन्दी के साहित्य जगत से न जाने कहाँ गुम-सा होता जा रहा है। साथ ही हिन्दी की मुख्यधारा में भी आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व कम होता जा रहा है।

हमारे समाज की जागरूकता और नवसृजन का मुख्य कारण हमारे राष्ट्र का समृद्ध साहित्यकोश रहा है। इन्ही समृद्ध साहित्य में बीसवीं सदी के अंत में भारत में जिन सामाजिक आन्दोलनों का सूत्रपात हुआ जैसे दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों व जनजातीय समुदायों ने नई एकजुटता के माध्यम से अपने प्रति शोषण का विरोध किया और संपूर्ण समुदाय की मुक्ति हेतु सामूहिक अभियान चलाया यही सब शामिल भी हुए और वंचितों के शोषण के खिलाफ खड़ी हुई मुहिम में सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के अलावा साहित्यिक आंदोलन ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। नारीवादी साहित्य, मनुवादी साहित्य और दलित साहित्य उसी का प्रतिफल है। परिणामस्वरुप आदिवासी चेतना से भरपूर आदिवासी साहित्य भी साहित्य और आलोचना की दुनिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका है।

आदिवासी समाज के विस्तार और उनकी परम्पराओं में भारत की वनांचल संस्कृति का रहस्य छुपा हुआ है, उन्ही लोक कलाओं, लोकोक्तियों, लोक गायन ऑन संगीत के साथ आदिवासी समाज की अपनी बोलियों में भारत को जानने और समझने की भरपूर सामग्री समाहित है। वर्तमान में आदिवासी साहित्य हिन्दी के अतिरिक्त ५० से अधिक भाषाओँ में लिखा भी जा रहा है और शोध के विषय के केंद्र में है। दशकों के संघर्ष और दमन के पश्चात् आज आदिवासी साहित्य को जागरूकता और समन्वय की केन्द्रीय परिधि में लाया जा रहा है। आदिवासी समाज व साहित्य पर निरन्तर चर्चाएं भी हो रही है। किंतु आदिवासी समाज की तरह आदिवासी साहित्य का संघर्ष आज भी जारी है। आज भी आदिवासी साहित्य अनेक समस्याओं एवं चुनौतियों से जूझ रहा है। इसका प्रमुख कारण आदिवासी समाज से जीवन से बाहरी समाज का अपरिचय और उपेक्षापूर्ण रवैया है। आदिवासी समाज से संवाद करने का आदिवासी साहित्य महत्वपूर्ण जरिया हो सकता है, बशर्तें उसका सही मूल्यांकन किया जाएं, इस हेतु इसके बुनियादी तत्वों की समझ होना अपरिहार्य है। आदिवासी साहित्य की उचित धारणाएँ एवं मापदण्ड होने आवश्यक है।

आज साहित्य की मुख्यधारा से जिस तरह आदिवासी साहित्य दूर हो रहा है वैसे ही हिन्दी के उत्थान में उनकी भूमिकाएँ भी नजर नहीं आ रही है। जबकि आदिवासी बोलियों का आधार भी हिन्दी भाषा में समाहित है। भारत में हिन्दी विमर्श का एक अध्याय बिना आदिवासी संस्कृति और परिवेश के जुड़े रहे पूरा हो पाना संभव ही नहीं है।

मुख्यधारा से पहले जन्मी साहित्य सहित कला संरक्षिका संस्कृति सदा से ही मौलिक रही है। जंगलों में खदेड़ दिए जाने के बाद भी आदिवासी समाज ने इस परंपरा को अनवरत जारी रखा। ठेठ जनभाषा में होने और सत्ता प्रतिष्ठानों से दूरी की वजह से यह आदिवासी साहित्य भी आदिवासी समाज की ही तरह ही उपेक्षा का शिकार होता चला गया। आज भी सैकड़ों देशज भाषाओं में आदिवासी साहित्य रचा जा रहा है, जिसमें से अधिकांश से हमारा संवाद शेष है।

जल, जंगल, जमीन की मांग करने वाले वनवासी समाज ने हिन्दी की मुख्यधारा से अपने आपको केवल इसलिए भी दूर मानना शुरू किया क्योंकि समाज में ये भ्रम व्याप्त रहा कि हिन्दी भाषा के प्रभाव से आदिवासी बोलियों का अस्तित्व खतरे में आ सकता है। किन्तु हिन्दी की मुख्यधारा के उत्थान और इसके जनभाषा बनने में आदिवासी सहित अन्य बोलियों का ही महत्वपूर्ण योगदान है।

दो दशक पूर्व भारत की केंद्रीय सरकार द्वारा शुरू की गई आर्थिक उदारीकरण की नीति ने बाजारवाद का रास्ता तो खोला, मुक्त व्यापार और मुक्त बाजार के नाम पर मुनाफे और लूट का खेल आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन से भी आगे जाकर उनके जीवन को दांव पर लगाकर खेला जा रहा है। आंकड़े गवाह हैं कि पिछले एक दशक में अकेले मध्यप्रदेश राज्य से 5 लाख से अधिक आदिवासी विस्थापित हो चुके हैं। इनमें से अधिकांश लोग इंदौर जैसे नगरों और गुजरात में अहमदाबाद, वड़ोदरा, सूरत में घरेलू नौकर या दिहाड़ी पर काम करते हैं। आदिवासियों के विस्थापन की स्थिति को खंगाला जाए तो विकास के नाम पर अपने पैतृक क्षेत्रों से बेदखल किए गए ये लोग अपनी वाचिक परम्पराओं और लोक संस्कृति का समूचा इतिहास भी विस्थापित करते जा रहे है और अपनी मौलिकता का भी लगे हाथ तर्पण करने लगे है। यह दुखद है कि जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1993 को ‘देशज लोगों का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में मनाने का फैसला किया तो भारत सरकार की प्रतिक्रिया थी-‘संयुक्त राष्ट्र द्वारा परिभाषित इंडिजिनस लोग भारतीय आदिवासी या अनुसूचित जनजातियां नहीं हैं, बल्कि भारत के सभी लोग देशज लोग हैं और न यहां के आदिवासी या अनुसूचित जनजाति किसी प्रकार के सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक पक्षपात के शिकार हो रहे हैं। दरअसल पूरा मसला आदिवासियों को आत्मनिर्णय का अधिकार देने का था, जिसकी मांग आदिवासी साहित्य में भी देखी जा सकती है। अपने जल-जंगल-जमीन से बेदखल महानगरों में शोषित-उपेक्षित आदिवासी किस आधार पर इसे अपना देश कहें ? बाजार और सत्ता के गठजोड़ ने आदिवासियों के सामने अस्तित्व की चुनौती खड़ी कर दी है। जो लोग आदिवासी इलाकों में बच गए, वे सरकार और उग्र राजनीती की दोहरी हिंसा में फंसे हैं। अन्यत्र बसे आदिवासियों की स्थिति बिना जड़ के पेड़ जैसी हो गई है। नदियों, पहाड़ों, जंगलों, आदिवासी पड़ोस के बिना उनकी भाषा और संस्कृति तथा उससे निर्मित होने वाली पहचान ही कहीं खोती जा रही है। आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व का इतना गहरा संकट इससे पहले नहीं पैदा हुआ। जब सवाल अस्तित्व का हो तो उसका प्रतिरोध भी स्वाभाविक है। सामाजिक व राजनीतिक प्रतिरोध के अलावा कला और साहित्य द्वारा भी इसका प्रतिरोध किया गया और उसी से समकालीन आदिवासी साहित्य अस्तित्व में आया। परन्तु वर्तमान में जब साहित्य से आदिवासी विचार और विमर्श गौण होने लगा तो यक़ीनन हिन्दी से भी आदिवासी समाज की दूरी नजर आने लगी। जबकि आदिवासी समाज और आदिवासी बोलियों का स्वादिष्ट तत्व हिन्दी भाषा में शामिल है।

आदिवासी दर्शन का भी गौण होना चिंता जनक है। आदिवासी साहित्य को समझने के लिए आदिवासियों की वाचिक परंपरा को समझना होगा, जो अत्यधिक समृद्ध है। यूँ तो स्वयं आदिवासी जीवन और समाज किसी प्रकार के शास्त्र या सिद्धांतों का बंधन नहीं मानता, परंतु आदिवासी साहित्य के बारें में भ्रमित तथ्यों एवं प्रतिमानों के समाधान हेतु कुछ बुनियादी तत्वों पर चर्चा करना भी जरूरी है। आदिवासी साहित्य के पाठ और समझ को नए सिरे से देखने एवं समझाने के लिए इसकी अंतर्वस्तु एवं स्वरूप की समझ होनी आवश्यक है।

आदिवासी बोली से ही हिन्दी ने लोकोक्ति को धारण किया है। हिन्दी साहित्य के उत्थान में आदिवासी संस्कृति और बोलियों के साथ-साथ आदिवासी समुदाय का भी महत्व है। हिन्दी के कई महनीय कवियों ने अपनी कविता के माध्यम से वनवासियों की पीढ़ा को गाया है, उनके दर्द को शहरी साहित्य में भी स्थान दिया है। हिन्दी के जनभाषा और राष्ट्रभाषा बनने के पीछे आदिवासी विमर्श का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। सरकारों को आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में शिक्षा के सुधार और अनिवार्य शिक्षा में हिन्दी को शामिल करने की दिशा में विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। साथ ही हिन्दी का तेज उसकी बोलियाँ है इस बात का विशेष ख्याल रखते हुए बोलियों को हिन्दी से अलग न करते हुए बोलियों के संरक्षण हेतु भी आवश्यक कदम उठाने चाहिए। आदिवासी विमर्श से हिन्दी युग की स्थापना का एक रास्ता दिखाई देता है, जिसे हिन्दी के प्रचारकों और चिंतकों को भी नवाचार से अवगत करवाएगा तो हिन्दी के साहित्यकारों को भी लेखन की नई दिशा देगा।

#डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’

परिचय : डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ इन्दौर (म.प्र.) से खबर हलचल न्यूज के सम्पादक हैं, और पत्रकार होने के साथ-साथ शायर और स्तंभकार भी हैं। श्री जैन ने आंचलिक पत्रकारों पर ‘मेरे आंचलिक पत्रकार’ एवं साझा काव्य संग्रह ‘मातृभाषा एक युगमंच’ आदि पुस्तक भी लिखी है। अविचल ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में स्त्री की पीड़ा, परिवेश का साहस और व्यवस्थाओं के खिलाफ तंज़ को बखूबी उकेरा है। इन्होंने आलेखों में ज़्यादातर पत्रकारिता का आधार आंचलिक पत्रकारिता को ही ज़्यादा लिखा है। यह मध्यप्रदेश के धार जिले की कुक्षी तहसील में पले-बढ़े और इंदौर को अपना कर्म क्षेत्र बनाया है। बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग (कम्प्यूटर  साइंस) करने के बाद एमबीए और एम.जे.की डिग्री हासिल की एवं ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियों’ पर शोध किया है। कई पत्रकार संगठनों में राष्ट्रीय स्तर की ज़िम्मेदारियों से नवाज़े जा चुके अर्पण जैन ‘अविचल’ भारत के २१ राज्यों में अपनी टीम का संचालन कर रहे हैं। पत्रकारों के लिए बनाया गया भारत का पहला सोशल नेटवर्क और पत्रकारिता का विकीपीडिया (www.IndianReporters.com) भी जैन द्वारा ही संचालित किया जा रहा है।लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं।

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संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।