ये जो तुम आज ठूंठ देखते हो

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bharat malhotra
ये जो तुम आज ठूंठ देखते हो
कभी हुआ करता था
वृक्ष हरा भरा
जिसकी हरियाली से
थी घर में खुशहाली
शीतल छाया में जिसके
दिन भर की थकन
पल में मिट जाया करती थी
चारों तरफ को विस्तृत शाखाएं
समेट लेती
जेठ की चिलचिलाती
धूप भरी दोपहरी भी
जब खिले थे दो नन्हे फूल
मेरी इन्ही टहनियों पर
सुवासित हो गया था
पूरा घर-आँगन
कितना खुश हुए
फूले नही समाए थे
देख के इन फूलों को
गर्व हुआ था
अपने आँगन के इस पेड़ पर
जो अब फूल के खिल जाने से
और भी खास हो गया था
इसी की सुवास से
कितना आसान था
सबका चैन से श्वास लेना
फूल जब गुलशन बन गए
नही रही जरूरत टहनियों के सहारे की
पतझड़ ने छीन ली
हरियाली और छाया
बेरहम वक़्त ने सुखा ही दिया
ये पेड़ जो कभी
आँगन की शोभा था
लेकिन ठूंठ होकर भी ये
लड़ता है
घर के तरफ होकर
चलने वाली हर आंधी से
ताकि छू न सके
किसी और हरे-भरे वृक्ष को…..
भरत मल्होत्रा।
परिचय :- 
नाम- भरत मल्होत्रा 
मुंबई(महाराष्ट्र)
शैक्षणिक योग्यता – स्नातक 
वर्तमान व्यवसाय – व्यवसायी 
साहित्यिक उपलब्धियां – देश व विदेश(कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों , व पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
सम्मान – ग्वालियर साहित्य कला परिषद् द्वारा “दीपशिखा सम्मान”, “शब्द कलश सम्मान”, “काव्य साहित्य सरताज”, “संपादक शिरोमणि”  
झांसी से प्रकाशित “जय विजय” पत्रिका द्वारा ” उत्कृष्ट साहितय सेवा रचनाकार” सम्मान एव 
दिल्ली के भाषा सहोदरी द्वारा सम्मानित, दिल्ली के कवि हम-तुम टीम द्वारा ” शब्द अनुराग सम्मान” व ” शब्द गंगा सम्मान” द्वारा सम्मानित  
प्रकाशित पुस्तकें- सहोदरी सोपान 
                         दीपशिखा 
                         शब्दकलश 
                         शब्द अनुराग 
                         शब्द गंगा 

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