चिनगारी

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kirti jayaswal
चिनगारी वह पर फैलाए,
बैठ गई छ्प्पर के ऊपर
तम देख वह चिंतित,
आलोक लाई थी।
तेल नहीं था; तम का साया,
उस घर में ही रोशन छाया
जल गया वह दीपक,
जो जल न पाता था।
कूप भी है वह जल गया,
जो जल न देता था
जल गया वह दीपक,
जो जल न पाता था।
ज्ञान दे सकी पोथी जब न,
अग्नि में अपने प्राण समाया
कुतरो में भी अक्सर जो,
कुछ ज्ञान देती थी।
घर के बूढ़े-बच्चों में,
वह तम का साया था
अग्नि ने उनके प्राण निकाले,
शोषण-दमन से प्राण बचाए;
जगमग करती; रोशन होती
‘देह’ जल रही है।
जगमग करता; रोशन होता,
‘गेह’ जल रहा है।
कंकाल जो कंगाल थे,
दो दिन से दाना न खाया
चूल्हा आज फिर न जलता,
चिनगारी ने आग लगाई।
चिथड़े जो लपेटे रहते,
प्राण गए चिथड़े न पाया
कफ़न बिना ही दाह-
संस्कार हो रहा है।
#कीर्ति जायसवाल
(तम-अंधेरा,आलोक-प्रकाश,कूप-कुआँ,पोथी-किताब,देह-शरीर,गेह-घर)
(भाव-एक चिनगारी,जो एक घर पर आग लगा आई,इस चिंता में कि उस घर के लोग जो रोज-रोज मरते हैं,उससे अच्छा एक ही दिन मर जाएं और दु:खों से छुटकारा पा जाएँ। जिस घर में ग़रीबी इस कदर छाई थी कि दीपक जलाने को तेल नसीब न था;कुएँ का जल भी सूखा था;बच्चों को फटी-चीथड़ी किताबें पढ़नी पड़ती एवं आस-पड़ोस के लोग से भी उनको तिरस्कार ही मिलता। घर में अन्न के लाले पड़े थे। इस कारण दो दिन से घर में चूल्हा भी नहीं जला था। घर में आग लगने से आज चूल्हा ही जल गया।  सब कुछ जलकर आग में खाक हो रहा;उस घर के लोग भी मृत्यु को प्राप्त हो गए। उन्हें कोई बचाता यह तो दूर की बात थी; आज बिना कफ़न के ही उनका दाह-संस्कार हो गया।)

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