कैसे जीत मुझे मिल पाती संघर्षों की उहापोह में,
भीतर तक अनमनी ललक को दुविधाओं ने घेर लिया था।
अपनेपन का जाल बिछाकर, अपनों ने ही ऐसा फाँसा,
सारे पंख उतिनवाकर भी, हँसता रहा आह बिन दिन-दिन।
न तो फड़फड़ा पाया जी भर, और न बदल सका मैं करवट,
ऐसा विवश हुआ मूरख-सा, फँसता रहा चाह बिन दिन-दिन।
मेरे अलिखित अनुबंधों को,लोग समझते रहे समर्पण,
लेकिन सच की छाया तक को, विपदाओं ने घेर लिया था।
धीरे-धीरे नए परों के ,अंकुर फूट जवानी आई,
सोचा चलो उड़ेंगे नभ में, दुनिया देख- देख डोलूँगा।
तब तक चोंच और पाँवों से,बन्धन की हो गई मित्रता,
पाया मैं तो पराभूत हूँ ,बन्दी हूँ,कैसे बोलूँगा।
कुछ करने की ललक मर गई,ठण्डे सब अरमान हो गए,
मैं निरीह असहाय हो गया,बाधाओं ने घेर लिया था।
सपने में भी खुद के बल पर,नीड़ बना पाना मुश्किल था,
फिर तो सोने के पिंजरे पर,थोड़ा नहीं, बहुत इतराया।
दाना-पानी रोज समय पर,मिलने को मैंने सुख समझा,
सारे दुखड़े भूल-भाल कर,नियति नटी का मन समझाया।
कैसी भी अब शेष तमन्ना,दिल को फीकी-सी लगती है,
कारण है इस समय अपेक्षित, सुविधाओं ने घेर लिया है।
#गिरेन्द्रसिंह भदौरिया ‘प्राण’