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क्या राष्ट्रवाद की अधिकता साम्राज्यवाद, फांसीवाद में परिणित हो जाती है ? जी हाँ,राष्ट्रवाद की अधिकता का परिणाम भी साम्राज्यवाद,फांसीवाद में देखा जा सकता है। जब कोई राष्ट्र,राष्ट्र निवासी अपनी सांस्कृतिक,ऐतिहासिक परम्परा में ग्रस्त होकर मोहान्ध हो जाता है,तब ऐसी स्थिति को देखा जा सकता है। एक राष्ट्र, निर्वासित जाति अपने को सर्वोपरि समझने लगे और अन्य को कमजोर, अनैतिहासिक,दोयम दर्जे का तो वह राष्ट्रवाद से साम्राज्यवाद,फांसीवाद की ओर बढ़ने लगता है। मार्क्स के पश्चात होरेस बी. डेविस ने राष्ट्रवाद को एक अलग नज़रिए से देखा और राष्ट्रवाद को एक औज़ार से ज़्यादा अहमियत नहीं दी और कहा कि-‘हथौड़े से हत्या भी की जा सकती है और निर्माण भी। राष्ट्रवाद के ज़रिए जब उत्पीड़ित समुदाय अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष करते हैं,तो वह एक सकारात्मक नैतिक शक्ति बन जाता है और जब राष्ट्र के नाम पर आक्रमण की कार्रवाई की जाती है,तो उसका नैतिक बचाव नहीं किया जा सकता है।’
जब किसी राष्ट्र को राष्ट्रवाद के नाम पर मोहान्ध हो जाए और उसे अभिमान हो जाए कि उसकी जाति और मान्यताएँ, संस्कृति ही श्रेष्ठ हैं,तो अवश्य वह विकृत होते हुए साम्राज्यवाद की ओर अग्रसर हो जाता है,लेकिन जब एक राष्ट्र के भीतर जातीय अस्मिता,सांस्कृतिक श्रेष्ठता और धार्मिक मान्यताओं का बलात आरोपण किसी समुदाय या अल्पसंख्यकों पर किया जाए तो वह घातक ही नहीं,बल्कि अमानवीय होता है। ऐसी फांसीवादी शक्तियों का जब प्रचंड रूप अपनी शक्ति को प्रमुख मानते हुए दूसरे को अपने अधीन करने के लिए शक्ति का सहारा ले तो वह साम्राज्यवाद की श्रेणी में चला जाता है। या फिर राष्ट्र के भीतर फांसीवादी ताकतों को बढ़ावा देकर राजनीतिक लाभ ग्रहण किए जाते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय हिटलर को साम्राज्यवादी नीति के तहत ही देखा जा सकता है। उसके राष्ट्रवाद एक बड़ा हिस्सा उच्च जाति के अभिमान से ग्रसित था,इसी कारण वह अमानवीय होता हुआ यहूदियों का बड़ी मात्रा में संहार करता है। वर्तमान में सीरिया को भी इन्हीं संदर्भों में में देखा जा सकता है,जहां राष्ट्रवाद के नाम पर अमानवीय अत्याचार निरंतर हो रहे हैं। बच्चे,बूढ़े,रोगी,स्त्रियाँ तक को वहाँ मौत के घाट खुलेआम उतारा जा रहा है। अब भारत में भी ऐसी विघटनकारी सामुदायिक ताकतों का वर्चस्व कायम हो रहा है जो राजनीति से प्रेरित होते हुए विशेष सामुदायिक सोच से परिसंचलित है। अत: राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक मोहान्ध,धार्मिक मद की अधिकता और कट्टरता भी घातक सिद्ध हो जाती है। साधारण रूप में देखें तो कहा जा सकता है कि राष्ट्र के हित, विकास,उन्नति के लिए जिस तरह का मानवीय प्रयास राष्ट्र को केन्द्र में रखकर किया जाता है वही राष्ट्रवाद की सीमा में आता है,लेकिन यह प्रयास नीतिगत और आचरणमयी होना ज़रूरी हैं,यदि उसमें कोई आदर्श नीति न हुई तो राष्ट्रवाद उन्मान्द,फांसीवादी शक्तियों का आश्रय लेकर पथभ्रष्ट होकर साम्राज्यवाद तथा फांसीवाद का रूप धारण कर लेगा।
राष्ट्रवाद के संबंध में यह सत्य है कि, प्रत्येक राष्ट्र के लिए राष्ट्रवाद जैसी धारणा होनी चाहिए,लेकिन राष्ट्रवाद के तहत स्वतंत्र प्रतिभाओं का विकास अवरूद्ध हो सकता है,जो मानवीय समाज को बेहतर बनाने की कामना रखते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास कर रहे हैं। विश्व के मानव को राष्ट्रों की सीमाओं में बंधा न मानकर उसे समता के रूप में देखने के पक्षपाती हैं। यदि राष्ट्रवाद केवल अपनी संस्कृति,भाषा,इतिहास, जाति को श्रेष्ठ मानकर चलता है तो यहाँ आकर ये धारणा विरोधी और अप्रगतिशील सिद्ध हो जाती है। राष्ट्रवाद में दबाव का होना पाया जाता है,राष्ट्रवाद के अंतर्गत उन प्रतिभाओं को नकार दिया जाता है जो कमज़ोर तबके से हैं, इसलिए प्रतिभाओं की समाप्ति की आशंकाएँ बढ़ जाती हैं। कभी-कभी राष्ट्रवाद,सांस्कृतिक श्रेष्ठता का नशा, धार्मिक मोहान्ध जातिगत आधारों को चुनकर लिंग भेद और जातिभेद को बढ़ावा दे देता है,जबकि उसे सामुदायिक विकास की सोच रखनी चाहिए। आज़ादी के समय अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चले राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान रवींद्रनाथ ठाकुर जैसी हस्तियाँ इस विचार को संदेह की निगाह से देखती थीं,जो ठाकुर साहब की अपनी सोच का परिणाम कही जानी चाहिए। वर्तमान में राष्ट्रवाद की अधकचरी सोच के कारण राष्ट्र में जातिगत,सांस्कृतिक,धार्मिक संघर्ष और टकराहटें बढ़ चुकी हैं जिसे हर हाल में कम होना चाहिए। यदि ऐसा न हुआ तो राष्ट्र वास्तव में आर्थिक रूप से पिछड़ जाएगा और आपसी टकराहटों के कारण असीमित हिंसा होगी,जो अत्यंत घातक और विनाशकारी सिद्ध होगी।
#डॉ. मोहसिन ख़ान
परिचय : डॉ. मोहसिन ख़ान (लेफ़्टिनेंट) नवाब भरुच(गुजरात)के निवासी हैं। आप १९७५ में जन्मे और मध्यप्रदेश(वर्तमान में महाराष्ट्र)के रतलाम से हैं। आपकी शैक्षणिक योग्यता शोधोपाधि(प्रगतिवादी समीक्षक और डॉ. रामविलास शर्मा) सहित एमफिल(दिनकर का कुरुक्षेत्र और मानवतावाद),एमए(हिन्दी)और बीए है। ‘नेट’ और ‘स्लेट’ जैसी प्रतियोगी परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के साथ ही अध्यापन(अलीबाग,जिला-रायगढ़ में हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं शोध निदेशक और अन्य महाविद्यालयों में भी)का भी अनुभव है। 50 से अधिक शोध-पत्र व आलेख राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। साथ ही ‘देवनागरी विमर्श (उज्जैन),
उपन्यास-‘त्रितय’,ग़ज़ल संग्रह- ‘सैलाब’और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ और गज़लें भी प्रकाशित हैं। बतौर रचनाकार आप हिन्दी साहित्य सम्मेलन(इलाहाबाद), राजभाषा संघर्ष समिति(नई दिल्ली), भारतीय हिन्दी परिषद(इलाहाबाद) एवं (उ.प्र. मालव नागरी लिपि अनुसंधान केन्द्र(उज्जैन,म.प्र.)आदि से भी जुड़े हुए हैं। कई साहित्यिक कार्यक्रम सफलता से सम्पन्न करा चुके हैं,जिसमें नाट्य रूपान्तरण एवं मंचन के रुप में प्रेमचंद की तीन कहानियों का निर्देशन विशेष है। अन्य गतिविधियों में एनसीसी अधिकारी-पद लेफ्टिनेंट,आल इंडिया परेड कमांड में सम्मानित होना है। इसी सक्रियता के चलते सेना द्वारा प्रशस्तियाँ एवं सम्मान के अलावा कुलाबा गौरव सम्मान,बाबा साहेब आम्बेडकर फैलोशिप दलित साहित्य अकादमी (दिल्ली)से भी सम्मान पाया है। समाजसेवा में अग्रणी डॉ.खान की संप्रति फिलहाल हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं शोध निदेशक तथा एनसीसी अधिकारी (अलीबाग)की है।
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