भारत भाषा प्रहरी : डॉ. अमरनाथ

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नौवां विश्व हिन्दी सम्मेलन, जो 22 सितंबर से 24 सितंबर 2012 तक दक्षिण अफ्रीका के शहर जोहांसबर्ग में आयोजित हुआ था। वहाँ दूसरे दिन किसी सत्र की समाप्ति पर मैंने देखा कि सभागार के बाहर एक व्यक्ति कुछ पर्चे बांट रहा है। साथ ही वे कुछ लोगों के साथ चर्चा भी कर रहे थे। चर्चा में हिंदी क्षेत्र की बोलियों को संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल किए जाने पर चिंता व्यक्त की जी रही थी। मेरे भी कान खड़े हुए। मैंने उस व्यक्ति से बातचीत की, मामले को समझा और फिर निश्चय किया कि इस प्रकार हिंदी के टुकड़े-टुकड़े न हों, हिंदी कमजोर न हो, इसके लिए मैं हर संभव प्रयास करूंगा। वे सज्जन कोई और नहीं बल्कि कलकत्ता विश्ववद्यालय के प्रोफेंसर डॉ. अमरनाथ थे। वहाँ तो उनसे विशेष परिचय नहीं हुआ लेकिन भारत लौटने के कुछ समय बाद इसी मुद्दे पर मैंने पर्चे से नंबर लेकर उनसे संपर्क साधा और इस प्रकार हिंदी को बचाने की इस साझा सोच और अभियान के माध्यम से मुझे उन्हें और उनके ‘हिन्दी बचाओ मंच’ के अभियान को जानने – समझने का अवसर मिला।

वर्ष 2016 में हमारी हिन्दी जब टूटने के कगार पर थी, भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने वाला बिल संसद में पेश होने वाला था, डॉ. अमरनाथ ने ‘हिन्दी बचाओ मंच’ के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन चलाकर, दिल्ली, कोलकाता जैसे शहरों में धरना और प्रदर्शन करके, भारत के गृहमंत्री से मिलकर, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा अन्य दर्जनों पक्ष- विपक्ष के नेताओं और मंत्रियों को पत्र लिखकर, देश भर में यात्राएं करके और जन-जागरण अभियान चलाकर, दर्जनों लेख लिखकर, सभी बड़े शहरों में प्रेस- कांफ्रेंस करके अन्तत: हिन्दी को विखंडित होने से बचा लिया। आज भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवी अनुसूची की मांग करने वालों के विरोध में और हिन्दी की एकता को बनाए रखने के पक्ष में देश भर में बुद्धिजीवियों और भाषा- प्रेमियों की जो एक बड़ी जमात मुखर हुई है, तो इसके पीछे डॉ. अमरनाथ और उनके संगठन ‘हिन्दी बचाओ मंच’ द्वारा चलाए गए आन्दोलन की महती भूमिका है।

डॉ. अमरनाथ ( वास्तविक नाम प्रो. अमरनाथ शर्मा ) का जन्म गोरखपुर जनपद ( संप्रति महाराजगंज ) के रामपुर बुजुर्ग नामक गाँव में सन् 1954 में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा गांव के आस- पास के विद्यालयों में और उच्च शिक्षा गोरखपुर विश्वविद्यालय में हुई जहाँ से उन्होंने एम.ए. और पी-एच.डी की उपाधियाँ प्राप्त कीं। आरंभ में वे गोरखपुर विश्वविद्यालय से संबद्ध नेशनल पोस्टग्रेजुएट कॉलेज में प्राध्यापक थे। 1994 में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन करने आए और तेईस वर्ष तक निरंतर अध्यापन, शोध निर्देशन तथा विभिन्न प्रशासनिक दायित्व निभाते हुए सन् 2017 में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष पद से अवकाश ग्रहण किया। इसके बाद से वे स्वतंत्र रूप से लेखन और सामाजिक कार्यों में संलग्न हैं।

कविता से अपनी रचना – यात्रा शुरू करने वाले डॉ. अमरनाथ सामाजिक – आर्थिक विषमता से जुड़े सवालों से लगातार जूझते रहे हैं। उनका विश्वास है कि लेखन में ऊर्जा सामाजिक संघर्षों से आती है। वे कई सामाजिक- सांस्कृतिक संगठनो से जुड़े रहे और आज भी जुड़े हुए हैं। उन्होंने स्वयं भी कई संस्थाओं का गठन और संचालन किया जिनमें ‘चेतना सास्कृतिक मंच’, ‘आचार्य सत्यदेव शास्त्री स्मारक पुस्तकालय’, ‘अपनी भाषा’, ‘हिन्दी बचाओ मंच’, ‘श्री चंद्रिका शर्मा फूला देवी स्मृति सेवा ट्रस्ट’ तथा ‘ग्राम स्वराज पुस्तकालय’ प्रमुख हैं। वे सन् 2000 से ‘अपनी भाषा’ की पत्रिका ‘भाषा विमर्श’ का तथा सन् 2013 से श्री चंद्रिका शर्मा फूलादेवी स्मृति सेवा ट्रस्ट की पत्रिका ‘गांव’ का संपादन कर रहे हैं। डॉ. अमरनाथ पिछली सदी के अन्तिम दशकों में जनवादी लेखक संघ से भी संबद्ध रहे और उसकी केन्द्रीय समिति के सदस्य थे किन्तु बाद में वैचारिक मतभेद के चलते वे उससे अलग हो गए। वे देश के विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के सबसे बड़े और पुराने संगठन भारतीय हिन्दी परिषद के उपसभापति भी रह चुके हैं।

हिन्दी जगत में डॉ. अमरनाथ की पहचान एक सुधी आलोचक और प्रतिष्ठित भाषाविद् की है। उनकी सर्वाधिक प्रतिष्ठित और चर्चित पुस्तक है, ‘हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली’। वर्ष 2009 में पहली बार प्रकाशित इस पुस्तक के अबतक आधा दर्जन से अधिक संस्करण हो चुके हैं। उच्च शिक्षा से जुड़े विद्यार्थियों से लेकर विश्वविद्यालयों के शिक्षकों तक में यह अत्यंत लोकप्रिय है। इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद इस पर जो प्रतिक्रियाएं आईं उनमें किसी ने इसे “साहित्यिक अवधारणाओं का प्रामाणिक दस्तावेज” ( वागर्थ ) कहा तो किसी नें “व्यवस्थित जानकारी का विश्वकोश” (हिन्दुस्तान)। इस ग्रंथ में हिन्दी आलोचना जगत में प्रचलित 212 अवधारणाओं का प्रामाणिक विश्लेषण है।
डॉ. अमरनाथ की दूसरी बहुचर्चित पुस्तक है ‘हिन्दी जाति’ । डॉ. अमरनाथ की स्थापना है कि हिन्दी ( हिन्दुस्तानी ) जाति इस देश की सबसे बड़ी जाति है। इसकी सांस्कृतिक विरासत अत्यंत समृद्ध है. वेद, उपनिषद, रामायण और महाभारत यहीं रचे गए। दुनिया के पहले गणतंत्र यहीँ विकसित हुए। यहीं नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय थे। यहीं बुद्ध और महावीर तथा राम और कृष्ण हुए। चरक जैसे शरीर-विज्ञानी, शूश्रुत जैसे शल्य- चिकित्सक, आर्यभट्ट जैसे खगोल-विज्ञानी, पतंजलि जैसे योगाचार्य, पाणिनि जैसे वैयाकरण और कौटिल्य जैसे अर्थशास्त्री यहीं हुए। यही वह क्षेत्र है जिसे कभी ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। यह हिन्दी जाति आज देश में सबसे पिछड़ी हुई जातियों में से एक है। अशिक्षा और पिछड़ापन ही उसकी पहचान है। वह देश- विदेश में रोटी के लिए अपना श्रम बेचती है और हर जगह उसे उपेक्षा मिलती है। दर- दर की ठोकरें खाना और अपमानित होना उसकी नियति बन चुकी है। अपने ही मुल्क में वह निरीह और बेचारी है। उसे न तो अपनी विरासत का अहसास है और न ही उस पर गर्व। उसे आए दिन साम्प्रदायिकता की ज्वाला झुलसाती रहती है. दस राज्यों में बँटे होने के कारण उसमें असंतुलित विकास हुआ है और जातीय चेतना का अभाव है। इन्हीं सवालों ने उन्हें ‘हिन्दी जाति’ पुस्तक लिखने को बाध्य किया। वे मानते हैं कि जबतक हिन्दी जाति के भीतर जातीय चेतना विकसित नहीं होगी हिन्दी जाति अपने पिछड़ेपन से मुक्त नहीं होगी। इस पुस्तक में हिन्दी और उर्दू के संबंध पर भी विस्तार से विचार किया गया है।

डॉ अमरनाथ की इस पुस्तक का भी पाठकों द्वारा भरपूर स्वागत हुआ। ‘सेतु’, ‘वागर्थ’, ‘सब लोग’ आदि में इसकी समीक्षाएं प्रकाशित हुईं। ‘जनसत्ता’ (दिल्ली) ने इस पुस्तक के बारे में लिखा, “इन दिनों हिन्दी से अभिन्न रूप से संबद्ध रहने वाली बोलियों के क्षेत्रों से हिन्दी की अस्मिता को जो चुनौती मिल रही है, हिन्दी के समानांतर इन बोलिय़ों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए आंदोलन खड़े किए जा रहे हैं, बोलिय़ों के हितसंरक्षण के नाम पर भोजपुरी, मैथिली, मगही अकादमियों की स्थापना की जा रही है, इससे हिन्दी की एकता में दरारें पैदा होने लगी हैं। इस परिदृश्य में जातीय भाषा के रूप में हिन्दी के उदय, विकास और महत्व का पुन: स्मरण कराना बहुत सामयिक है। अमरनाथ की यह पुस्तक यह कार्य खूबसूरती से संपन्न करती है और बोलियों के अंधमोह और प्रेम में जुनूनी बने हुए बोली प्रेमियों के बीच हिन्दी जाति की वांछनीयता को उजागर करती हुई उन्हें हिन्दी प्रेम और हित के लिए प्रेरित करती है।”

  इसी तरह ‘सबलोग’ ( दिल्ली) ने अक्टूबर 2013 के अंक में लिखा, “मेरी दृष्टि में अमरनाथ जी ने इस पुस्तक का प्रणयन करके हिन्दी जाति पर बड़ा उपकार किया है। डॉ. अमरनाथ की यह छोटी सी बेहद कीमती पुस्तक सस्ते में साधारण हाथों तक पहुँच सकती है।  मुझे उम्मीद है कि गांधी जी की महान पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ की तरह भविष्य़ में यह पुस्तक भी हिन्दी समाज के बीच लोकप्रियता हासिल करेगी। ........इस पुस्तक से गुजरते हुए मुझे बराबर यह महसूस होता है कि जिस काम को अमरनाथ जी ने इतनी शिद्दत से किया है, उसे देश भर में फैली उन असंख्य हिन्दी सेवी संस्थाओं को करना चाहिए जिन्हें हिन्दी के प्रचार –प्रसार के लिए सरकार से अनुदान मिलता है। आखिर वे ऐसे सवालों से क्यों नहीं टकरातीं ?”

भाषा और साहित्य से इतर विषय पर केन्द्रित उनकी एक पुस्तक ‘नारी का मुक्ति संघर्ष’ है। यह पुस्तक सन् 1991 में पहली बार उस समय प्रकाशित हुई थी जब हिन्दी में स्त्री विमर्श की चर्चा आरंभ भी नहीं हुई थी। ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और परवर्ती आलोचना’, तथा ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काव्य चिंतन’ उनकी अन्य आलोचना केन्द्रित कृतियाँ हैं। डॉ. अमरनाथ ने अनेक ग्रंथों का संपादन भी किया है जिनमें ‘समकालीन शोध के आयाम’, ’हिन्दी का भूमंडलीकरण’, ‘हिन्दी भाषा का समाजशास्त्र’, ‘सदी के अन्त में हिन्दी’, ‘बांसगांव की विभूतियां’, ‘सारस्वत बोध के प्रतिमान : आचार्य रामचंद्र तिवारी’ आदि प्रमुख हैं।

इसके अलावा डॉ. अमरनाथ के सैकड़ों शोध-पत्र, आलोचनात्मक तथा वैचारिक निबंध देश की विभिन्न महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।

जीवन दर्शन

डॉ. अमरनाथ के सबसे प्रिय कवि तुलसी है। रामचरितमानस का उन्होंने एकाधिक बार अध्ययन किया हैं। वे वेदों, उपनिषदों, गीता, रामायण आदि के भी गहरे अध्येता हैं। यही नहीं उन्होंने कुरान और बाइबिल का भी अध्ययन किया है। हालांकि देवी –देवताओं में उनका विश्वास नहीं है। अपनी मान्यताओं में वे विशुद्ध भौतिकवादी हैं। पुनर्जन्म को वे नहीं मानते, इसीलिए वे धन-वैभव की तरह यश को भी भौतिक संपत्ति मानते हैं और कहते हैं कि जिस तरह धन का लोभी व्यक्ति, धन इकट्ठा करने के लिए भाँति- भाँति के कुकर्म करता हैं उसी तरह यश का लोभी भी, यश के लिए तरह- तरह के समझौते करता हुआ दिखाई देता है। वे कहते हैं कि मरने के बाद किसी को क्या पता कि दुनिया में उसका बड़ा यश है?

राजनीति में डॉ. अमरनाथ की गहरी रुचि है किन्तु वे कभी किसी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं रहे। वे सत्ता- परिवर्तन में नहीं, बल्कि व्यवस्था- परिवर्तन में विश्वास करते हैं। उनपर मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है, किन्तु व्यवस्था- परिवर्तन के लिए किसी तरह की हिंसा का सहारा लेने के वे पूर्णत: विरोधी हैं। उन्हें मार्क्स का समाजवाद तो चाहिए किन्तु गाँधी के रास्ते पर चलकर। उनका मानना हैं कि भारत की प्रकृति और संस्कृति के अनुकूल विकास की दिशा तय करनी होगी। वे कहते हैं कि भारत के संविधान में भी तो समाजवाद का ही सपना देखा गया है। उनका विश्वास है कि भारत का सुनहरा भविष्य मार्क्स और गाँधी के दर्शन की सम्मिलित भूमि पर ही निर्मित हो सकता है।

डॉ अमरनाथ जो भी लिखते हैं, उसके पहले विचार करते हैं कि उनके लिखे हुए का देश की आम जनता के हित में कोई भूमिका है या नहीं। वे मानते हैं कि एक ईमानदार साहित्यकार सिर्फ आम जनता के प्रति ही जवाबदेह होता है, अन्य किसी के प्रति नहीं।

भाषा के संघर्ष की दिशा के बारे में वे कहते हैं, ” भाषा का भी वर्ग-चरित्र होता है। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाएं शोषित- शासित वर्ग की भाषाएं है जबकि अंग्रेजी इस देश के शोषक-शासक वर्ग की भाषा है। आर्थिक उदारीकरण के बहाने हमारे देश पर जैसे- जैसे साम्राज्यवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा बढ़ रहा है उसी अनुपात में अंग्रेजी का वर्चस्व भी बढ़ रहा है। ऐसी दशा में हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा की लड़ाई अनिवार्यत: साम्राज्यवाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वर्चस्व के विरुद्ध लड़ी जाने वाली लड़ाई का ही एक हिस्सा है।” ( अपनी भाषा की लोकयात्रा, पृष्ठ-34)

किन्तु भारत के वामपंथियों की भाषा नीति की वे आलोचना करते हैं। उनका कहना है कि भारत के वामपंथी, दलितों और शोषितों के हित की वकालत तो करते हैं किन्तु वे माध्यम- भाषा शोषकों की (अंग्रेजी) अपनाते हैं। लगता है वामपंथी दलों की कोई भाषा- नीति है ही नहीं। इस दृष्टि से वे महात्मा गाँधी और राम मनोहर लोहिया की भाषा-नीति की भूरि- भूरि प्रशंसा करते हैं।

वे कहते हैं, “भाषा, संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा होती है। समाज की जैसी संस्कृति होती है, भाषा का चरित्र भी उसी तरह का बन जाता है। दुनिया भर को लूटने की संस्कृति को जिस जाति ( अंग्रेज ) ने ईजाद किया, उसकी भाषा में स्नेह और शीतलता, करुणा और त्याग, संगीत और लालित्य तलाशना बालू से तेल निकालने जैसा है। हमारे देश में अंग्रेजी वर्चस्व की भाषा है, विभेद की भाषा है और अहंकार की भाषा है। जब हमारे देश का कोई बच्चा आरंभ से ही इस भाषा के माध्यम से शिक्षा लेने लगता है तो वह धीरे- धीरे अपनी जमीन से कटता जाता है। अपनी धरती, अपने परिवेश और अपने समाज से उसका लगाव कम होने लगता है।” ( हिन्दी जाति, पृष्ठ- 16)

डॉ. अमरनाथ की शिकायत है कि दो दशकों से भी अधिक दिनों से वे भारतीय भाषाओं के हित की लड़ाई लड़ रहे हैं किन्तु उनके आन्दोलन के समर्थन में वामपंथी बुद्धिजीवी एक-दो ही आए। हाँ, दक्षिणपंथियों, गाँधीवादियों और लोहियावादियों ने उनका जमकर साथ दिया।

‘अपनी भाषा’ की स्थापना और उसका योगदान

  हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के बीच सेतु निर्मित करने एवं भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के उद्देश्य से डॉ. अमरनाथ ने कोलकाता में ‘अपनी भाषा’ नामक संस्था का गठन किया। आरंभ में संस्था के महासचिव और बाद में लम्बे समय तक उसके अध्यक्ष के रूप में वे संस्था के संचालन में केन्द्रीय भूमिका निभाते रहे। ‘अपनी भाषा’ संस्था अपने नाम के अनुरूप सभी भारतीय भाषाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के महत् उद्देश्य को लेकर गठित की गई है।

डॉ. अमरनाथ की स्पष्ट मान्यता है कि जबतक समस्त सरकारी कामकाज जनता की अपनी भाषाओं में नहीं होने लगेगा तबतक जनता की आजादी का कोई अर्थ नहीं है। जनता की वास्तविक मुक्ति तभी होगी जब जनता अंग्रेजी की दासता से मुक्त होगी क्योंकि तभी उसे आत्म गौरव का बोध हो सकेगा। इसीलिए ‘अपनी भाषा’ की मांग है कि सारा सरकारी काम-काज प्रादेशिक भाषाओं में हो और हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो।

संस्था के संविधान में लिखा है कि “‘अपनी भाषा’ निरंतर संवाद और व्यावहारिक अनुभवों से अर्जित निष्कर्षों में विश्वास करती है। वह ऐसे लेखकों, समाजसेवियों और देश भक्तों का संगठन है जो राष्ट्रीय अखंडता, भावात्मक एकता और देश की सामासिक संस्कृति में विश्वास करते हैं। ‘अपनी भाषा’ इंसानियत में आस्था रखने वाले ऐसे सेकुलर बुद्धिजीवियों का संगठन है जो जाति, वर्ण, क्षेत्रीयता और भाषा-भेद बढ़ाने वाली नीतियों के खिलाफ है। ‘अपनी भाषा’ ऐसे प्रबुद्ध नागरिकों का संगठन है जो भारतीय संविधान के दायरे में रहकर बहुभाषा-भाषी इस देश में सांस्कृतिक सामंजस्य के सूत्र खोजने में सतत सचेष्ट हैं और राष्ट्रीय एकता में बाधक क्षेत्रीय स्वार्थ केन्द्रित नीतियों का पर्दाफाश करते हैं। अपनी भाषा अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष का बिगुल बजाने वाले ऐसे योद्धाओं का संगठन है जिन्हें भारतीय भाषाओं की अस्मिता और शक्ति में आस्था है तथा जो इस देश की देशी भाषाएं बोलने वाले बहुसंख्यक, शोषित वर्ग के साथ खड़े होने में गौरव का अनुभव करते हैं।” (‘अपनी भाषा’ का घोषणा पत्र से)

‘अपनी भाषा’ का पहला सार्वजनिक आयोजन 11 नवंबर सन् 2000 को महाजाति सदन, कोलकाता के एनेक्स सभागार में संपन्न हुआ था जिसमें प्रसिद्ध शिक्षाविद्, भाषा वैज्ञानिक और रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. पवित्र सरकार ने संस्था की योजनाओं पर प्रकाश डालते हुए इसके महत्व एवं आवश्कता पर जोर दिया और सफलता की कामनाएं की. बांग्ला के प्रसिद्ध कवि श्री नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती ने समारोह की अध्यक्षता की थी और पद्मश्री डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र ने सभा को संबोधित करते हुए समकालीन विषम परिस्थितियों में संस्था की जरूरत को रेखाँकित किया और शुभकामनाएं दीं।

‘अपनी भाषा’ की ओर से प्रतिवर्ष मुख्यत: तीन कार्यक्रम संपन्न होते हैं। भाषा समस्या से संबंधित विषयों पर कम से कम दो राष्ट्रीय संगोष्ठियाँ आयोजित होती हैं, अपने अनुवाद कार्य तथा लेखन द्वारा हिन्दी तथा किसी दूसरी भारतीय भाषा के बीच सेतु कायम करने वाले किसी एक शीर्ष के रचनाकार को प्रतिवर्ष ‘जस्टिस शारदा चरण मित्र स्मृति भाषा सेतु सम्मान’ से सम्मानित किया जाता है तथा ‘भाषा विमर्श’ का कम से कम एक अंक प्रकाशित किया जाता है। इसके अलावा ज्वलंत विषयों पर मासिक गोष्ठियाँ होती हैं, आवश्यक होने पर पैम्फ्लेट निकाले जाते हैं, धरना-प्रदर्शन होते हैं और समय -समय पर पुस्तकों का प्रकाशन भी होता है।

   संस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि संस्था ने अपने आयोजनों के लिए कभी भी किसी भी तरह की सरकारी आर्थिक सहायता नहीं ली है और सारा खर्च संस्था के सदस्य और शुभचिन्तकों के आपसी सहयोग से चलता है। यहाँ तक कि ‘भाषा विमर्श’ के अंक भी सबको बिना मूल्य के ही दिए जाते हैं।

जस्टिस शारदाचरण मित्र स्मृति भाषा-सेतु सम्मान से अबतक जिन्हें सम्मानित किया जा चुका है उनमें सिद्धेश, शंकरलाल पुरोहित, चंद्रकान्त बांदिवडेकर, बी. वै. ललिताम्बा, वी. रा. जगन्नाथन, चमन लाल, ए. अरविन्दाक्षन, बिन्दु भट्ट, विजयराघव रेड्डी, चमनलाल सप्रू, राजेन्द्र प्रसाद मिश्र, दामोदर खड़से, रामचंद्र परमेश्वर हेगड़े, बीना बुदकी, इबोहल सिंह कांग्जम आदि प्रमुख हैं.

‘अपनी भाषा’ की संगोष्ठियों में शामिल होकर लोग गौरव का अनुभव करते हैं. महाश्वेता देवी, नामवर सिंह, नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती, सुनील गंगोपाध्याय, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, पवित्र सरकार, रुद्रप्रसाद सेनगुप्त, उदयनारायण सिंह, रामकुमार मुखोपाध्याय, वेद प्रताप वैदिक, चंद्रकान्त बांदिवडेकर, बालशौरि रेड्डी, परमानंद पाँचाल, बलदेव बंशी, बीरेन्द्र कुमार बर्नवाल, कैलाशचंद्र पंत, चित्रा मुद्गल, मृदुला सिन्हा, हिमांशु जोशी, कृष्णदत्त पालीवाल, कमलकिशोर गोयनका, प्रभु जोशी, राहुल देव, कुंवरपाल सिंह, कृष्णबिहारी मिश्र, प्रभाकर श्रोत्रिय, नवनीता देवसेन, हरिवंश, गंगा प्रसाद विमल, प्रतिभा अग्रवाल, रवीन्द्र कालिया जैसे बांगला, ओड़िया, असमिया, मराठी, तेलुगू, तमिल, पंजाबी, हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के ख्यातिलब्ध साहित्यकार व संस्कृतिकर्मी ‘अपनी भाषा’ की संगोष्ठियों को संबोधित कर चुके हैं.

‘हिन्दी बचाओ मंच’ का आन्दोलन

‘हिन्दी बचाओ मंच’ की स्थापना और उसके द्वारा चलाया गया आन्दोलन डॉ. अमरनाथ का ऐतिहासिक कार्य है। इसके लिए हिन्दी समाज द्वारा वे हमेशा याद किए जाएंगे। इस संगठन की स्थापना 13 अगस्त 2016 को कोलकाता में हुई थी। एक साल के भीतर ही इस संगठन ने जो महान कार्य संपादित किए उसका लेखा- जोखा शची मिश्र द्वारा संपादित ‘हिन्दी बचाओ मंच का एक साल’ नामक पुस्तक में देखा जा सकता है। 592 पृष्ठों की यह पुस्तक निस्संदेह भविष्य़ में भाषा- समस्या पर काम करने वालों के लिए मार्ग दर्शक की भूमिका निभाएगी।

इस संगठन की स्थापना की पृष्ठभूमि का जिक्र करते हुए डॉ. अमरनाथ लिखते हैं, “ 2003 में अचानक अखबार में एक छोटी सी खबर देखने को मिली कि मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया गया है। ……. इसके बाद तो भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग तेज हो गई। सबसे मुखर आवाज भोजपुरी और राजस्थानी के लिए थी। भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग करने वालो में श्री प्रभुनाथ सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, संजय निरूपम, अली अनवर अंसारी, योगी आदित्यनाथ, शत्रुघ्न सिन्हा, मनोज तिवारी जैसे सांसद प्रमुख हैं। इतना ही नहीं, मध्य प्रदेश से अलग होने के बाद छत्तीसगढ़ ने 28 नवंबर 2007 को अपने राज्य की राजभाषा छत्तीसगढ़ी घोषित किया और विधान सभा में प्रस्ताव पारित करके उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग की। यही स्थिति राजस्थानी की भी है। हकीकत यह है कि जिस राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग की जा रही है उस नाम की कोई भाषा वजूद में है ही नहीं। राजस्थान की 74 में से सिर्फ नौ ( ब्रजी, हाड़ौती, बागड़ी, ढूंढाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी ) बोलियों को राजस्थानी नाम देकर संवैधानिक दर्जा देने की माँग की जा रही है।” ( हिन्दी बचाओ मंच का एक साल, पृष्ठ 14)
डॉ. अमरनाथ लिखते हैं कि संविधान की आठवीं अनुसूची में मैथिली को जगह मिलने के बाद इस तरह की मांग का उठना स्वाभाविक है, क्योंकि डेढ़-दो करोड़ मैथिली भाषियों की तुलना में भोजपुरी, राजस्थानी और छत्तीसगढ़ी बोलने वालों की संख्या कई गुना अधिक है। उनके एक लेख ‘चिन्दी चिन्दी होती हिन्दी’ का इस आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने ‘नवनीत’ के संपादक विश्वनाथ सचदेव के आग्रह पर यह लेख लिखा था, जो ‘बंटवारा भाषा का’ पर केन्द्रित ‘नवनीत’ के विशेषांक में आवरण कथा के रूप में प्रकाशित हुआ था। डॉ. अमरनाथ लिखते हैं कि, “इस लेख का जैसा स्वागत हुआ वह मुझे भी चकित करने वाला था। दर्जनों पत्रिकाओ ने जहां तहां से लेकर और कुछ ने मुझसे मांगकर उसे छापा। डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने ‘दस्तावेज’ के संपादकीय में इसका उल्लेख करते हुए इसपर विस्तार से लिखा। संजीव ने ‘हंस’ में इसके समर्थन में विस्तृत टिप्पणी लिखी। ‘प्रभात वार्ता’, ‘जनसत्ता’, ‘सबके दावेदार’, ‘दो-आबा’, ‘वसुधा’, ‘भास्वर भारत’, ‘सरस्वती’, ‘द वेक’, ‘रेल रश्मि’, ‘राष्ट्रभाषा संदेश’, ‘हरसिंगार’, ‘व्यंग्य तरंग’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘अलाव’, ‘राष्ट्रभाषा’, ‘पूर्वग्रह’, ‘अक्षरा’, ‘सबलोग’, ‘आधुनिक साहित्य’, ‘सेतु’, ‘संपर्क पत्रिका’, ‘विश्व मुक्ति’, ‘कँहार’, ‘गर्भनाल’, ‘सदीनामा’, ‘पदार्पण’, ‘दीवान मेरा’, ‘विश्वा’, ‘सलाम दुनिया’, ‘वैश्विक हिन्दी सम्मेलन’ आदि ने यह लेख अपने मूल रूप में या संशोधनों के साथ बार-बार प्रकाशित किया।” ( हिन्दी बचाओ मंच का एक साल, पृष्ठ- 17)

इस बीच ‘जन भोजपुरी मंच’ नामक संगठन ने हस्ताक्षर अभियान चलाकर और प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को ट्विटर आदि से संदेश भेजकर भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग तेज कर दिया था। दूसरी ओर 12 नवंबर 2016 को शकुन्तला मिश्रा पुनर्वास विश्वविद्यालय लखनऊ में भोजपुरी अध्ययन एवं अनुसंधान केन्द्र का उद्घाटन करते हुए तत्कालीन गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह ने आश्वासन दे दिया कि शीघ्र ही भोजपुरी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होगी और इस संबंध में उनकी भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी से बात हो चुकी है। भाजपा सांसद और दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष मनोज तिवारी ने भी ‘नव भारत टाइम्स’ को एक साक्षात्कार में बताया कि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का फैसला हो गया है और अगले सत्र में इससे संबंधित बिल पेश किया जाएगा।

यह सूचना डॉ. अमरनाथ के लिए गंभीर चिन्ता का विषय थी। वे लिखते हैं, “व्यक्तिगत रूप से मैने पढ़ना –लिखना छोड़कर इस मिशन में लग गया। भोजपुरी और राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने से हिन्दी को होने वाली क्षति का तथ्यों के साथ विवरण देते हुए मैने ‘हिन्दी बचाओ मंच’ की ओर से हिन्दी क्षेत्र के अधिकाँश मंत्रियों, प्रमुख सांसदों तथा विपक्ष के सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख पदाधिकारियों को पत्र लिखा।“ ( वही, पृष्ठ- 17) 18 दिसंबर 2016 को उन्होंने अपने फेसबुक पर लिखा, “ हिन्दी हमारी माँ है। हम जीते जी अपनी माँ के अंग कटने नहीं देंगे। आइए, हम सभी संकल्प लें कि जबतक यह प्रस्ताव वापस नहीं होता, हम हर मोर्चे पर लड़ेंगे, जो जहाँ भी हों, जिस रूप में हों, अपनी भाषा रूपी माँ से प्रेम है तो आगे बढ़िए, लिखिए, नारे लगाइए, जुलूस निकालिए, बहस कीजिए, हर तरह से अपनी क्षमतानुसार संघर्ष कीजिए। बंगलादेशी जनता की तरह अपनी भाषा बचाने के लिए हर कुर्बानी देने के लिए तैयार हो जाइए। समय की यही मांग है। अब चुप बैठकर प्रतीक्षा करने का वक्त नहीं है। ये स्वार्थान्ध लोग इतना भी नहीं समझते कि छोटी- छोटी नदियों के जल से गंगा में प्रवाह बनता है। यदि इन सबका जल रोक देंगे तो गंगा सूख जाएगी चाहे उसकी जितनी भी सफाई कर लो।” ( वही, पृष्ठ-17)

दूसरे दिन अर्थात् 19 दिसंबर 2016 को हमने इसे ‘वैश्विक हिन्दी सम्मेलन’ के वाल पर प्रकाशित किया। इस आह्वान का व्यापक असर हुआ। समर्थन में सैकड़ों प्रतिक्रियाएं आईं। वैश्विक हिन्दी सम्मेलन’ द्वारा इस लेख के परिप्रेक्ष्य में श्रृंखलाबद्ध ई-संगोष्ठी आयोजित की गई जिसमें देश-विदेश के अनेक भारतीय-भाषा प्रेमियों व हिंदी -प्रमियों द्वारा अपने विचार प्रस्तुत करते हुए हिंदी के टुकड़े-टुकड़े करने का तीव्र विरोध किया गया। इसके माध्यम से यह आन्दोलन देश के कोने-कोने में पहुंचा और देश के अनेक भाषा-प्रेमी इससे जुड़ते गए। इस मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस और आन्दोलन की गूंज मीडिया और सोशल मीडिया से होते हुए सत्ता के गलियारों तक भी पहुंची। इसके बाद डॉ. अमरनाथ ने देश के 110 प्रतिष्ठित साहित्यकारों की ओर से 27 दिसंबर 2016 को प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखा जिसमें आग्रह किया गया कि हिन्दी की किसी भी बोली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल न करें और इस संबंध में यथास्थिति बनाए रखें। 15 जनवरी 2017 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया गया, जिसमें वेदप्रताप वैदिक, पद्मश्री श्याम सिंह शशि, कथाकार चित्रा मुद्गल, राकेश पाण्डेय, करुणाशंकर उपाध्याय, श्यामरुद्र पाठक, शची मिश्रा, दर्शन पण्डेय सहित दिल्ली तथा जेएनयू से बड़ी संख्या में छात्रों तथा अध्यापकों ने हिस्सा लिया।

इस अभियान में डॉ. अमरनाथ के सहयोगी डॉ. राकेश पाण्डेय के संपादन में 14 जनवरी 2017 को विश्व पुस्तक मेले में ‘आठवीं अनुसूची और हिन्दी की बोलियां’ शीर्षक पुस्तक का विमोचन भी हुआ जिसमें उनके साथ राहुल देव, मुकेश भारद्वाज, वेदप्रताप वैदिक, प्रेमपाल शर्मा, गोविन्दाचार्य, शची मिश्रा आदि उपस्थित थे।
इसी क्रम में डॉ. अमरनाथ ने अपने खर्चे से एक अभियान चलाकर देश भर में यात्राएं कीं विश्वविद्यालयों –महाविद्यालयों में इस विषय पर व्याख्यान दिए, सभी प्रमुख शहरों में प्रेस- काँफ्रेस किए, देश और विदेश में भी पर्चे बांटे और दुनियाभर के हिन्दी प्रेमियों से संपर्क करके उन्हें हिन्दी पर आसन्न खतरे से परिचित कराया। वे 17 फरवरी 2017 को एक प्रतिनिधि मंडल के साथ पश्चिम बंगाल के राज्यपाल श्री केशरीनाथ त्रिपाठी से मिले और इस विषय पर उन्हें ज्ञापन दिया। 13 जुलाई को उन्होंने गृहराज्य मंत्री श्री किरण रिजिजू के निर्देश पर संयुक्त सचिव, गृह मंत्रालय, भारत सरकार से वार्ता की जिसमें चित्रा मुद्गल, कृष्णकुमार गोस्वामी, राहुल देव, महेशचंद्र गुप्त, राकेश पाण्डेय, करुणाशंकर उपाध्याय आदि मौजूद थे। अगले दिन अर्थात् 14 जुलाई 2017 को एक प्रतिनिधि मंडल के साथ वे भारत के गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह से मिले और उन्हें ज्ञापन दिया। राजनाथ सिंह ने लगभग आधे घंटे तक उनकी बातें सुनीं और इस मुद्दे पर यथास्थिति कायम रखने का आश्वासन भी दिया। इस अवसर पर गृहमंत्री जी को डॉ. अमरनाथ ने देश के 2940 प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा हस्ताक्षरित प्रपत्र भी दिया जिसमें प्रधानमंत्री से आग्रह किया गया था कि “ हिन्दी की किसी भी बोली को संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल न करें और इस विषय में यथास्थिति बनाए रखें। “
अपनी बातें समझाने के लिए डॉ. अमरनाथ देवी-दुर्गा के मिथक का उदाहरण देते हैं। दुर्गा बनी कैसे ? महिषासुर से त्रस्त सभी देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए थे। “अतुलं तत्र तत्तेज: सर्वदेवशरीरजम्। एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा।“ अर्थात् सभी देवताओं के शरीर से प्रक़ट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी। एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणत हो गया और अपने प्रकाश से तीनो लोकों में व्याप्त हो गया। तब जाकर महिषासुर का बध हो सका।
हिन्दी भी ठीक दुर्गा की तरह है। जैसे सारे देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए और दुर्गा बनी वैसे ही सारी बोलियों के समुच्चय का नाम हिन्दी है। यदि सभी देवता अपने-अपने तेज वापस ले लें तो दुर्गा खत्म हो जाएगी, वैसे ही यदि सारी बोलियां अलग हो जायँ तो हिन्दी के पास बचेगा क्या ? हिन्दी का अपना क्षेत्र कितना है ? वह दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली कौरवी से विकसित हुई है। हम हिन्दी साहित्य के इतिहास में चंदबरदायी और मीरा को पढ़ते है जो राजस्थानी के हैं, सूर को पढ़ते हैं जो ब्रजी के हैं, तुलसी और जायसी को पढ़ते हैं जो अवधी के हैं, कबीर को पढ़ते हैं जो भोजपुरी के हैं और विद्यापति को पढ़ते है जो मैथिली के हैं। इन सबको हटा देने पर हिन्दी साहित्य में बचेगा क्या ?
आलोचकों के आलोचक
डॉ. अमरनाथ आलोचकों के आलोचक हैं। उनके लेखन का मुख्य क्षेत्र हिन्दी का आलोचना साहित्य ही है। हिन्दी आलोचना का आलोचनात्मक इतिहास शीर्षक उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशनाधीन है। हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में उनकी कुछ मौलिक स्थापनाएं भी हैं। हिन्दी आलोचना का आरंभ, आधुनिक काल से माना जाता है। इसपर वे सवाल उटाते हैं कि हिन्दी साहित्य की रचना तो नवीं-दसवीं सदी से ही होने लगी थी। फिर आलोचना का विकास अठारहवीं सदी से क्यों? क्या हजार साल तक सिर्फ रचनाएं होती रहीं और उनपर प्रतिक्रयाएं नहीं होती थी? यदि रचना के साथ-साथ ही आलोचना का विकास भी होता है तो क्या हिन्दी साहित्य के आदि काल से आधुनिक काल के भारतेन्दु युग तक लोग सिर्फ रचनाएं पढ़ते और सुनते रहे और उनपर प्रतिक्रियाएं देने से परहेज करते रहे ? भला ऐसा कैसे संभव है?”
वे संस्कृत साहित्य में टीकाओं की समृद्ध परंपरा का स्मरण दिलाते हुए कहते हैं कि वास्तव में रचना को सहृदय पाठकों के लिए बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से ही टीकाएँ लिखी जाती थीं। आलोचक का पहला काम होता है रचना को भली- भाँति समझना, उसके गुण-दोष का विवेचन करना और उसे पाठकों को समझने में मदद पहुँचाना। भाष्यकार का भी यही काम होता है। टीका या भाष्य लिखने वाला, सही अर्थों में आलोचक होता है। निश्चित रूप से टीकाएँ लिखने के लिए अत्यधिक साधना, श्रम और धैर्य की जरूरत होती है। उसकी तुलना में प्रतिष्ठा भी कम ही मिलती है। जबकि आज का युग कम से कम श्रम करके अधिक से अधिक प्राप्त करने का है। अगर भाष्यकारों को प्रतिष्ठा मिलने की परंपरा पूर्ववत जारी रहती तो पुस्तक समीक्षाएँ अथवा औसत दर्जे के रचनाकारों पर प्रशंसात्मक लेख लिखकर आलोचक के रूप में लोगों को आसानी से प्रतिष्ठा कैसे मिल पाती? इसीलिए वे जोर देकर कहते हैं कि बड़े ही सुनियोजित तरीके से भाष्यकारों की उपेक्षा की गई और इस तरह आलोचना की एक अत्यंत पुष्ट और उत्कृष्ट पद्धति को यथासंभव उपेक्षित और कमजोर किया गया।
वे हिन्दी में पाठालोचन तथा अनुसंधानपरक आलोचना की समृद्ध विरासत का विस्तृत विवेचन करते हुए वे उनके महत्व और उनकी उपलब्धियों का आकलन करते हैं। वे इस बात पर चिन्ता व्यक्त करते हैं कि देश के विभिन्न हिस्सों में फैले पुस्तकालयों में आज भी हजारों बहुमूल्य पाण्डुलिपियाँ अपने उद्धार की बाट जोह रही हैं।
हिन्दी आलोचना के इतिहास में गाँधीवादी आलोचना की परंपरा की प्रतिष्ठा करते हुए डॉ. अमरनाथ सवाल करते हैं कि, “जब साहित्य की अन्य विधाओं पर गाँधीजी गहरा प्रभाव दिखाई देता है तो भला आलोचना उसके प्रभाव से वंचित कैसे रह सकती है ? हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि हिन्दी आलोचना जगत में मार्क्सवादी, मनोविश्लेषणवादी आदि विदेशी दर्शनों से परिचालित आलोचना पद्धतियों की चर्चा तो विस्तार से की गई है किन्तु गाँधीवादी आलोचना पद्धति का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी को वे ‘गाँधीवादी आलोचक’ कहकर संबोधित करते हैं। इसी तरह हिन्दी में वे ‘हिन्दुत्ववादी आलोचना’ की एक नई श्रेणी स्थापित करते हैं।
रामविलास शर्मा के आलोचना कर्म की प्रशंसा करते हुए वे उनकी भाषा संबंधी मान्यताओं पर लिखते हैं, “ रामविलास शर्मा की भाषा उनकी सैद्धांतिक मान्यताओं का स्वत: बयान करती हैं। उनकी भाषा महात्मा गांधी द्वारा अनुमोदित प्रेमचंद की परंपरा की भाषा है जिसमें न तो संस्कृतनिष्ठता की गरिष्ठता है और न फारसीपन की दुरूहता। इसी तरह की हिन्दी की हमें आज जरूरत है। इस क्षेत्र में रामविलास शर्मा हमारे लिए प्रकाश-पुंज की तरह हैं।”
उन्होंने नामवर सिंह को “हिन्दी आलोचना का डिक्टेटर” कहा है और “हिन्दी में शोध का धंधा” शीर्षक लेख में उन्होंने विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में शोध के नाम पर हो रहे धंधे का कच्चा- चिट्ठा खोला है।
इस समय ‘हिन्दी के योद्धा’ के साथ ही वे ‘हिन्दी के आलोचक’ शीर्षक से भी नियमित कालम लिख रहे हैं।
गाँव का प्रकल्प और सामाजिक कार्य
डॉ. अमरनाथ का जन्म गाँव में हुआ। वहीं बचपन बीता और स्नातक तक की शिक्षा भी गाँव में रहते हुए वहीं से हुई। वे कहते हैं कि उनकी निर्मिति में जिस गाँव की इतनी बड़ी भूमिका रही है उसके प्रति भी उनका दायित्व है। इसी दायित्वबोध ने उन्हें अपने गाँव में श्री चंद्रिका शर्मा फूला देवी स्मृति सेवा ट्रस्ट की स्थापना के लिए प्रेरित किया। इस ट्रस्ट की स्थापना वर्ष 2013 में हुई। तभी से इस ट्रस्ट के माध्यम से डॉ. अमरनाथ सामाजिक कार्यों में लगे हुए हैं। ट्रस्ट की ओर से गाँव में ‘ग्राम स्वराज पुस्तकालय’ का संचालन होता है, ग्रामीण पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों को नि:शुल्क मार्गदर्शन दिया जाता है। प्रतिवर्ष गाँव में नि:शुल्क चिकित्सा शिविर लगता है जिसमें क्षेत्र के आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों को नि:शुल्क चश्मा दिया जाता है, गांवो में पढ़ने वाले प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को पुरस्कृत, सम्मानित और प्रोत्साहित किया जाता है, खेल एवं सांस्कृतिक प्रतियोगिताएं होती हैं, उत्कृष्ट कोटि की ज्ञानवर्धक फिल्में दिखाई जाती हैं और ‘गाँव’ ( ISSN : 2347-4335 ) नाम से एक पत्रिका का भी प्रकाशन होता है जिसमें गाँव की समस्याओं से संबंधित रचनाओं के प्रकाशन पर अधिक बल दिया जता है। उल्लेखनीय है कि इन आयोजनों को राजनीति से दूर रखा जाता है और किसी भी राजनीतिक दल के किसी नेता को आयोजनों में आमंत्रित नहीं किया जाता।
डॉ. अमरनाथ देश के विभिन्न हिस्सों में विखरे अपने परिवार तथा गाँव के सदस्यों को इन आयोजनों में आमंत्रित करते हैं। लोग प्रति वर्ष अपने- अपने खर्च से यहाँ आते है और प्रकारान्तर से गाँव में सबकी एक बार भेंट होती है। इस कार्यक्रम को डॉ. अमरनाथ अपने परिवार तथा गाँव के सदस्यों का अपनी जड़ों से जुड़े रहने का निमित्त मानते हैं।
डॉ. अमरनाथ आज भी पूर्णत: सक्रिय हैं और हमें उनसे अभी बहुत उम्मीदें हैं।
डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’

निदेशक, वैश्विक हिंदी सम्मेलन

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।