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आह, अब कितने बदल गए गाँव के भी लोग….
रही नहीं मासूमियत
अब नहीं वह संयोग।
कजरी के सुर हुए तिरोहित,
नहीं फाग के वे राग।
बुझे-बुझे से चेहरे
भीतर द्वेष की लिए आग॥
कट गए सारे बाग-बगीचे,
रहे नहीं वे लोग।
जिए जो जिंदगी संजीदगी से
मस्ती की चादर ओढ़॥
अब नहीं पनघट पर जमघट,
नहीं पंडुक दादुर मोर।
दुर्योधन के अखाड़े हैं,
बन गए चहुंओर॥
सज्जनता-द्रोपदी की जहां,
लूट रही है लाज।
मूक दर्शक हैं बने,
जहां भीष्म द्रोण धर्माचार्य॥
वृद्ध पीपल गिन रहा है
जिन्दगी के दिन…।
हंस हुए कब से नदारद
हैं कौवे भी गमगीन॥
शहरों की केवल बुराई,
बन रही गाँव में मेहमान।
गाँव के गुण-गंध मौलिक,
खो रहे निज पहचान॥
आह अब कितने बदल गए,
गाँव के भी लोग….॥
#विजयकान्त द्विवेदी
परिचय : विजयकान्त द्विवेदी की जन्मतिथि ३१ मई १९५५ और जन्मस्थली बापू की कर्मभूमि चम्पारण (बिहार) है। मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार के विजयकान्त जी की प्रारंभिक शिक्षा रामनगर(पश्चिम चम्पारण) में हुई है। तत्पश्चात स्नातक (बीए)बिहार विश्वविद्यालय से और हिन्दी साहित्य में एमए राजस्थान विवि से सेवा के दौरान ही किया। भारतीय वायुसेना से (एसएनसीओ) सेवानिवृत्ति के बाद नई मुम्बई में आपका स्थाई निवास है। किशोरावस्था से ही कविता रचना में अभिरुचि रही है। चम्पारण में तथा महाविद्यालयीन पत्रिका सहित अन्य पत्रिका में तब से ही रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। काव्य संग्रह ‘नए-पुराने राग’ दिल्ली से १९८४ में प्रकाशित हुआ है। राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति विशेष लगाव और संप्रति से स्वतंत्र लेखन है।
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Tue Dec 19 , 2017
हार गए पर सोचते,हम जाएंगे जीत। दुश्मन को पचती नहीं,भगवा की ये रीत॥ बैठे-बैठे सोचते,चला नहीं कुछ खेल। चारों खाने चित्त हुए,चारों पप्पू फेल॥ मुँह ही की सब खा रहे,चलती फिर भी चोंच। सारे जग को हार रहे,नहीं बदलती सोच॥ सब विरोधी उखाड़ते,गड़ी हुई जो ईंट। साँप तो अब निकल […]