फिल्मी `दंगल` के कोलाहल से काफी पहले बचपन में सचमुच के अनेक दंगल देखे। क्या दिलचस्प नजारा होता था। नागपंचमी या जन्माष्टमी जैसे त्योहारों पर मैदान में गाजे-बाजे के बीच झुंड में पहलवान घूम-घूमकर अपना जोड़ खोजते थे। किसी ने चुनौती दी तो हाथ मिलाकर हंसते-हंसते चुनौती स्वीकार किया। फिर मैदान में जानलेवा जोर-आजमाइश देखकर बाल मन आतंकित हो उठता। सोचता… इतने हट्टे-कट्टे पहलवान हैं। अभी हाथ मिला रहे हैं,जब मैदान में उतरेंगे तो पता नहीं क्या होगा। सांस रोककर चली प्रतीक्षा के बाद दोनों पहलवान मैदान में उतरे और खूब जोर- आजमाइश की। परिणाम आने के बाद दोनों हाथ मिलाकर हंसते हुए अपने-अपने खेमे में चले गए। यह बड़ा रोचक लगता था कि,जिससे लड़े-भिड़े उसी से हाथ मिलाकर अपने- अपने रास्ते हो लिए। किशोरावस्था तक पहुंचते-पहुंचते असली दंगल से लोगों को मोहभंग होने लगा और सभी का झुकाव कुश्ती जैसे देशी खेल के बजाय क्रिकेट में ज्यादा होने लगा। अलबत्ता इसके स्थान पर चुनावी दंगल बड़ा दिलचस्प नजारा पेश करने लगा। गांव जाने पर पंचायत तो अपने शहर में नगर पालिका की सभासदी का चुनाव मुझे सबसे ज्यादा रोचक लगता था,क्योंकि इसमें भाग्य आजमाने वाले अपने ही आस-पास के होते थे। बिल्कुल दंगल वाली शैली में । पहले एक उम्मीदवार ने दूसरे को चुनौती दी। हाथ में माइक थामा तो खूब लानत-मलानत की,लेकिन मुठभेड़ हो गई तो मुस्कुराते हुए गले मिले। ऐसे दृश्य मुझमें गहरे तक आश्चर्य और कौतूहल पैदा करते थे,क्योंकि मुझे लगता था जिसे भला -बुरा कहा,उसे गले लगाना या जिसे गले लगाया,वक्त आने पर उसे भला-बुरा कहना आसान काम नहीं। यह मजबूत कलेजे वाले ही कर सकते हैं। ऐसे दृश्य देखकर मुझे धारावाहिक `महाभारत` की याद ताजा हो उठती,क्योंकि उस `महाभारत` में भी तो यही होता था। टीवी के परदे पर हम सांस रोककर कौरव-पांडवों के बीच भीषण युद्ध देख रहे हैं। फिर अचानक नजर आ रहा है कि युद्ध रुक गया है। दोनों पक्ष कहीं आमने-सामने हुए तो आपस में प्रणाम भ्राता श्री,प्रणाम मामा श्री भी कह रहे हैं। यह देखकर मैं सोच में पड़ जाता था कि,सचमुच कितना दिलचस्प है कि जिससे लड़ रहे हैं उसी के प्रति सौजन्यता भी दिखा रहे हैं। खैर महाभारत का महाभारत तो समय के साथ समाप्त हो गया,लेकिन अब माननीयों का महाभारत तेज गति से आस-पास चल ही रहा है। अभी दीपावली पर टेलीविजन पर नजरें गड़ाए रहने के दौरान एक बड़े राजनीतिक घराने की दीवाली पर नजर पड़ी,जिसमें चाचा-भतीजा समेत समूचा कुनबा हंसी-खुशी दीवाली मना रहा है। चेहरों की भाव भंगिमा देख भला कौन कह सकता है कि,इनके बीच एक दिन पहले तक उखाड़-पछाड़़ चल रही थी। माननीयों का महाभारत ऐसा ही है। एक पार्टी में रहकर लगातार पार्टी विरोधी हरकतें कर रहे हैं,लेकिन पूछिए तो जवाब मिलेगा वे संगठन के अनुशासित सिपाही हैं और हमेशा रहेंगे। `भैयाजी` के तेवर से समर्थक उल्लासित हैं कि अब तो जनाब नई पार्टी की खिचड़ी पकाकर रहेंगे जिसमें से कुछ दाने उनकी ओर भी गिरेंगे। तभी जनाब ने यह कहते हुए पलटी मार दी कि,उनका नई पार्टी बनाने का कोई इरादा नहीं है। आखिरकार एक दिन श्रीमानजी पार्टी से निकाल दिए गए…। नई पार्टी या फिर किसी दूसरी में जाने का रास्ता साफ हो गया,लेकिन अॉन कैमरा बार-बार यही कह रहे हैं कि उनका नई पार्टी बनाने या किसी दूसरे दल में जाने का कोई इरादा नहीं है। हाईकमान का फैसला चाहे जो हो,लेकिन वे पार्टी के अनुशासित सिपाही बने रहेंगे। सचमुच जो कहे वो करे नहीं और जो करे वो दिखे नहीं…ऐसा करिश्मा कर पाने वाले कोई मामूली आदमी नहीं कही जा सकते। अस्सी के दशक का बहुचर्चित धारावाहिक महाभारत तो इतिहास बन गया,लेकिन हमारे माननीयों का महाभारत अबाधित गति से चलता ही रहेगा।
#तारकेश कुमार ओझा
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं | तारकेश कुमार ओझा का निवास भगवानपुर(खड़गपुर,जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है |