राष्ट्रीयता की पुरानी कल्पना आज गतकालीन हो चुकी है। परवान राष्ट्रधर्म औपचारिकता में राष्ट्रीय पर्व ध्वजारोहण और राष्ट्रगान तक सीमित रह गया है। मतलब,असली आजादी का मकसद खत्म! चाहे उसे पाने के वास्ते कुर्बानियों का अम्बार लगा हो। प्रत्युत,अमरगाथा में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि,आजादी जितनी मेहनत से मिली है,उतनी मेहनत से सार-संभाल कर रखना ही हमारा द्रष्टव्य,नैतिक कर्तव्य और दायित्व है। मसलन हम खैरात में आजाद नहीं हुए हैं,जो आसानी से गवां दें। अधिष्ठान स्वतंत्र आजादी की मांग चहुंओर सांगोपांग बनाए रखने की दरकार है। अभाव में हर मोड़ पर हम कब होंगे आजाद की गूंज सुनाई देगी। आकृष्ट गुलामी से आजादी अभिमान है `जियो और जीने दो सम्मान है` यथावत् रखने की जद्दोजहद जारी है।
हालातों के परिदृष्य फिरंगी लूट-खसोटकर राष्ट्र का जितना धन हर साल ले जा रहे थे,उससे कई गुना हम अपनी रक्षा पर खर्च कर रहे हैं। फिर भी शांति नहीं है,न सीमाओं पर,न देश के भीतर…आखिर ऐसा कब तक ? कल के जघन्य अपराधी, माफिया और हत्यारे आज सासंद व विधायक बने बैठे हैं। जिन्हें जेल में होना चाहिए,वे सरकारी सुरक्षा में हैं। देश में लोकतंत्र है,जनता द्वारा,जनता का शासन,सब धोखा ही धोखा है। मतदाता सूचियां गलत,चुनावों में रूपया-माफिया-मीडिया के कारण लोकतंत्र एक हास्य नाटक बन गया है। वीभत्स, कब इस देश की भाषा हिन्दी बनेगी ? संसद और विधानसभाओं में हिन्दी प्रचलित होगी ? न्यायालयों में फैसले हिन्दी में लिखे जाएँगे ?
देश में भ्रष्टाचार के मामलों की बाढ़-सी आई हुई है। नित-नए घोटाले सामने आ रहे हैं। बड़े-बड़े राजनेता,अधिकारी और नौकरशाह भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। उन्हें केवल सत्ता पाने या बने रहने की चिंता है। चुनाव के समय जुड़े हाथों की विन्रमता, दिखावटी आत्मीयता,झूठे सब चुनाव जीतने के हथकण्डे हैं। बाद में तो ‘लोकसेवकों’ के दर्शन भी दुर्लभ हो जाते हैं। बेरोजगार गांवों से शहर की ओर पलायन करने को मजबूर हैं। यदि गांवों में मूलभूत सड़क,बिजली,पानी,शिक्षा, स्वास्थ्य,कौशलता और रोजगार की समुचित व्यवस्था हो तो लोग शहर की ओर मुंह नहीं करेंगे,पर हो उल्टा रहा है। शहरी व अन्य विकास के नाम पर किसानों की भूमि बेरहमी से अधिग्रहण हो रही है। प्रतिभूत कृषि भूमि के निरंतर कम होने से अन्न का उत्पादन भी प्रभावित होने लगा है।
स्त्री उत्पीड़न कम नहीं हुआ है। आज भी दहेज-प्रताड़ना के कारण बेटियां आत्महत्याएं कर रही हैं,अपराध बढ़ रहे हैं। लूट,हत्या,अपहरण और दुष्कर्म के समाचारों से अखबार पटे रहते हैं। भारतीय राजनीति के विकृत होते चेहरे और लोकतांत्रिक,नैतिक मूल्यों के विघटन से स्वतंत्रता का मूलाधार जनतंत्र में ‘जन ही हाशिए पर चला गया और स्वार्थ केन्द्र में।` बरबस देश की तरक्की की उम्मीद कैसे की जा सकती है! सोदेश्यता स्वतंत्रता की अक्षुण्णता हम कब होंगे आजाद का आलाप संवैधानिक अधिकारों के जनाभिमुख होने से मुकम्मल होगा।