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हर आदमी के अन्दर
कम-से-कम
एक आदमी और रहता है,
यानि एक आदमी कम-से-कम
दो आदमी के बराबर होता है,
कई बार तो हजारों आदमियों के बराबर।
एक आदमी के सामने,
एक समय में कम-से-कम
दो दुनिया होती है,
कभी-कभी तो इतनी सारी दुनिया कि,
उसे होश ही नहीं रहता कि
जीवन का कितना हिस्सा,
किस-किस दुनिया में गुजरा।
आदमी जब तक जीतता रहता है,
एक भीड़ दौड़ती रहती है
उसके साथ
जब हारने लगता है,
छंट जाती है भीड़
अकेला पड़ जाता है,
फिर भी अदंर के आदमी होते हैं
उसके साथ।
आदमी थक-हारकर जब बैठ जाता है,
मरने लगते हैं उसके अन्दर के आदमी
सिर्फ हाँफती हुई दुनिया बचती है,
उसके सामने।
थक-हारकर बैठा हुआ आदमी,
ज्यादा से ज्यादा
एक आदमी के बराबर भी नहीं होता है।
#प्रदीप मिश्र
परिचय: प्रदीप मिश्र का जन्म १ मार्च १९७०का और जन्म स्थान गोरखपुर( उत्तर प्रदेश)है। आपकी कुछ प्रमुख कृतियाँ कविता संग्रह-फिर कभी तथा उम्मीद,वैज्ञानिक उपन्यास-अन्तरिक्ष नगर तथा बाल उपन्यास -मुट्ठी में किस्मत (२००९) प्रकाशित है। आपने कवि अरूण आदित्य जी के साथ साहित्यिक पत्रिका का संपादन और कुछ अखबारों में पत्रकारिता भी की है। साठोत्तरी हिन्दी कविता पर कुछ समीक्षात्मक कार्य किया है तो आलेख सहित रचनाएँ दूरदर्शन व आकाशवाणी से प्रसारित हुई है। आपको पुरस्कार भी मिले हैं। लेखन क्षेत्र में करीब २० वर्ष से हैं।
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