जन्म शताब्दी विशेष
● डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
आज से ठीक एक शताब्दी पूर्व यानी 22 अगस्त 1924 जमानी, होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में एक कायस्थ परिवार में अद्भुत व्यक्तित्व के धनी हरिशंकर परसाई जी का जन्म हुआ था।
18 वर्ष की उम्र में वन विभाग में नौकरी की, फिर खंडवा में 7 महीने अध्यापन कार्य किया।
दो वर्ष (1941 से 1943) जबलपुर में स्पेस ट्रेनिंग कॉलेज में शिक्षण की उपाधि ली। 1942 में उन्होंने सरकारी नौकरी भी छोड़ दी। 1943 से 1947 तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। फिर 1947 में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरूआत कर दी। जबलपुर से ‘वसुधा’ नाम की साहित्यिक मासिकी निकाली, नई दुनिया में ‘सुनो भइ साधो’, नयी कहानियों में ‘पाँचवाँ कालम’ और ‘उलझी–उलझी’ तथा कल्पना में ‘और अन्त में’ इत्यादि कहानियाँ, उपन्यास एवं निबन्ध–लेखन के बावजूद मुख्यत: व्यंग्यकार के रूप में विख्यात हुए।
आप हिन्दी की ऐसी धरोहर हैं, जिनके कारण व्यंग्य को विधा का दर्जा मिला और व्यंग्य के मानकों के साथ मनोरंजन के अतिरिक्त समाज की समस्याओं और व्यवस्थाओं पर करारा तंज करते हुए उसे समाज के मुद्दों के साथ कदमताल करवाया गया।
अपनी आत्मकथा ‘गर्दिश के दिन’ में परसाई जी लिखते हैं कि, “साल 1936 या 37 होगा, मैं शायद आठवीं का छात्र था। कस्बे में प्लेग फैला था…रात को मरणासन्न माँ के सामने हम लोग आरती गाते थे। कभी-कभी गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते, माँ बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेती और हम भी रोने लगते। फिर ऐसे ही भयकारी त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर माँ की मृत्यु हो गई। पाँच भाई-बहनों में मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था।”
परसाई जी कहते थे, “गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूँ। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता। इसलिए गर्दिश नियति है…”
वे अपनी कहानियों, व्यंग्य, कविताओं इत्यादि में मानवीय संवेदनाओं और लोक मंगल के विषयों को शामिल करते थे।
आपको ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया।
10 अगस्त, 1995 को हिन्दी के ऐसे नक्षत्र सदा के लिए महायात्रा पर निकल गए।
ऐसे महनीय कालजयी साहित्यकार की जन्म शताब्दी पर कोटिशः नमन।
#डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
राष्ट्रीय अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान