परिचर्चा संयोजक-
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
भारत में आम चुनाव चल रहे हैं और इसी तारतम्य में सभी राजनैतिक पार्टियों के घोषणा–पत्र भी आ चुके हैं और लगातार सभाएँ भी देशभर में जारी हैं। ऐसे दौर में बुद्धिजीवियों का कुनबा या कहें साहित्य जगत् राजनीति के क्षेत्र से अछूता ही नज़र आ रहा है। न घोषणापत्र में साहित्य समाज के लिए कोई बात या विषय है और न ही साहित्यकारों की किसी सलाह अथवा उनकी भूमिका नज़र आ रही है। इसके साथ ही, बीते एक दशक से तो दिल्ली यानी राज्यसभा से भी साहित्यकार की कुर्सी (जो मनोनीत राज्यसभा सदस्य के तौर पर होती थी) अब वह भी फ़िल्म अथवा खेल से आने वाले लोग भर रहे हैं। न तो राजनेता साहित्यकारों के साथ समन्वय कर रहे हैं। जबकि मज़बूत और संस्कारी लोकतंत्र के निर्माण में साहित्यकारों की भूमिका अहम है।
इसी दृष्टि की स्थापना के लिए मातृभाषा डॉट कॉम द्वारा आयोजित डिजिटल परिचर्चा में विद्वतजनों ने अपने विचार रखे।
इंदौर निवासी साहित्यकार एवं इंदौर लेखिका संघ की सचिव मणिमाला शर्मा कहती हैं कि ‘राजनीति के प्रति अनास्था ही राजनीति की कई ग़लतियों की सूचक है। साहित्य, शिक्षा, स्वास्थ्य तो राजनीति की प्राथमिकता में होने चाहियें, पर हम देख रहे हैं कि ये तीनों ही तुष्टिकरण के युग में उपेक्षित हो रहे हैं। ज़िम्मेदारों की सामूहिक ज़िम्मेदारी की जगह यह अब व्यक्तिगत या पारिवारिक ज़िम्मेदारी हो गई है। यह कष्टप्रद है और दुर्भाग्यपूर्ण भी।
इतिहास गवाह है लेखकों को अपने दरबार में एक कुशल सलाहकार के रूप में, रत्न के रूप में सभी नेतृत्व अपने-अपने राज दरबार में साथ रखते थे। साहित्यकार भी सही सलाह देकर शासन में सहयोग कर यथोचित सम्मान पाते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है। राजनेता अपनी सात पीढ़ी के लिए संसाधनों की व्यवस्था में लिप्त होकर जिनके लिए चुने जाते हैं, उनको अनदेखा करते हुए अपना कार्यकाल पूरा कर लेते हैं। घोषणा पत्र अब वोट की राजनीति के होते हैं और ये सब हम स्पष्ट रूप से देख भी पा रहे हैं। संवेदनशील साहित्यकार तात्कालिक हर मुद्दों पर अपने विचार रखते हैं, आईना भी दिखाते हैं लेकिन सब कहीं न कहीं दबकर रह जाते हैं। ऐसे में नैतिक दायित्व समझने वाले साहित्यकार अपने आपको बेबस और असहाय महसूस करते हैं।
मुझे लगता है चाहे चुनाव के बाद ही सही सभी लेखकों को संगठित होकर सरकार का ध्यान आपके माध्यम से आकर्षित करना ही चाहिए। शायद अतिश्योक्ति होगी कि विनाश काले विपरीत बुद्धि का असर है सभी राजनीतिक पार्टियों पर। सरस्वती पुत्र-पुत्रियों को त्याग कर लक्ष्मी जी सम्पन्न को पूजा जा रहा है। हम कह सकते हैं कि जड़ की जगह पत्तों को सींचा जा रहा है।’
इसी तारतम्य में इंदौर की वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार डॉ. सुनीता श्रीवास्तव का कहना है कि ‘वर्तमान समय में राजनीति केंद्रित मीडिया और सामाजिक प्रवृत्तियों के चलते साहित्य और साहित्यकारों को अक्सर अनदेखा और अप्रामाणिक तरीके से विश्लेषित किया जाता है। इससे साहित्यकारों का उद्दीपना कम होता है और उनका दृष्टिकोण बुरा हो जाता है। राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में साहित्य और साहित्यकारों का उल्लेख नहीं किया जाता, जिससे साहित्य का महत्त्व कम होता है।
लेकिन साहित्य और कला का महत्त्व व्यक्तित्व और सामाजिक संरचना के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह समाज को विचारशीलता, भावना और सहयोग की दिशा में ले जाता है। साहित्यकारों की लेखनी समाज की अन्य दृष्टियों को खोलती है और समाज में जागरुकता और परिवर्तन को बढ़ावा देती है। इसलिए साहित्य और साहित्यकारों को समाज के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए, न कि उन्हें राजनीतिक दलों के अनुसार छोड़ दिया जाना चाहिए।’
इंदौर की ही युवा साहित्यकार सपना सी.पी. साहू के अनुसार, ‘नेता नहीं चाहते जनजागृति। प्रेमचंद जी ने गोदान में कहा था कि “साहित्य राजनीति के आगे मशाल लेकर चलता है।” आज़ादी से लेकर अब तक साहित्यकारों ने सामाजिक, भौगोलिक, राजनैतिक, आर्थिक समस्याओं पर खुलकर लिखा है, जिससे राष्ट्र के प्रत्येक वर्ग ने जागृति का अनुसरण कर, देश के विकास में अहम भूमिका का निर्वहन किया है। लेकिन वर्तमान राजनीति में साहित्य व साहित्यकारों की अनदेखी हो रही है। साहित्य, जो समाज का दर्पण कहा जाता है, उससे जुडे़ साहित्यकारों को किसी भी राजनैतिक दल ने घोषणा पत्र से दूर ही रखा है। जबकि यह वर्ग समाज, राष्ट्र में सबसे अधिक विवेकी होने के साथ सबसे अधिक संवेदनशील भी है। ऐसा करना साहित्य की गरिमा का ह्वास करना ही है।
हम इतिहास से वर्तमान तक को दृष्टिगत करें तो कोई भी आंदोलन, क्रांति, सुधार, सत्ता परिवर्तन ऐसा नहीं जिसमें लोकतंत्र के चौथे स्तंभ साहित्य और पत्रकारिता के महान विचारों ने महत्त्वपूर्ण योगदान न दिया हो। यह स्तंभ नि:स्वार्थी, देशभक्त साहित्यकारों, पत्रकारों के कारण ही तो गतिमान है। ऐसे में राजनैतिक दल इन्हें दूर इसलिए भी रख रहे हैं क्योंकि साहित्यकार सीमित संख्या में है। राजनीतिक दल जानते हैं कि बुद्धिजीवी वर्ग को वे अपने खोखले वादों, झूठी बातों से प्रभावित नहीं कर सकते। और वे दवाब में भी नहीं रह पाएँगे। वे झूठ को सच नहीं कहेंगे। अतः उनके स्वार्थसिद्धि में यह बुद्धिजीवी वर्ग बाधक बन सकता है। अन्य कारण, चुनाव जीतने के लिए बड़े वोट बैंक की ज़रूरत होती है। इसलिए घोषणा पत्र में अक्सर ऐसे ही वर्ग को प्रभावित करने के लिए लुभावने वादे किए जाते हैं। साथ ही, राजनीतिक दल ये भी जानते हैं कि बुद्धिजीवी तबके को प्रभावित करना इतना सरल, सहज भी नहीं है। यह वर्ग हमेशा तर्क की कसौटी पर पूर्ण परीक्षण के उपरांत ही अपने स्वविवेक से ही मताधिकार का उपयोग करेगा। तभी वे इस वर्ग की उपेक्षा करते आये हैं। जहाँ राजनैतिक दल मुफ़्त की रेवड़िया बाँटने में लगे हैं। वे यह चाहते ही नहीं कि राष्ट्र में जनजागरण हो। वे जनता को अंधकार की खोह में ही रखना चाहते हैं। नेतागण भ्रष्टाचार, ग़लत मंशा और जनता को अपने अधिकारों के लिए चिंतनशील बनने से सदा भयभीत रहते हैं। वे नहीं चाहते साहित्य के माध्यम से ग़लत के विरुद्ध आवाज़ बुलंद हो। अगर वे ध्यान रखते हैं तो हो सकता है कि उनकी झूठ-फ़रेब की दुकानदारी चलने में ख़ासी दिक्कतें हों। वैसे राजनेता किसी के भी सगे नहीं हैं। वैसे भी सत्ता के उपासक साहित्य के उपासक हो भी नहीं सकते। तभी तो किसी भी दल ने साहित्य व साहित्यकारों के उत्थान तक को विस्मृत कर दिया है।’
परिचर्चा के केन्द्र में राजनीति में साहित्य समाज की उपेक्षा के प्रति ध्यानाकर्षण है। मातृभाषा डॉट कॉम का सदैव प्रयास रहा है कि हम साहित्य समाज में सदैव सकारात्मकता का फैलाव करें, विमर्श आधारित विषयों पर बुद्धिजीवियों से चर्चा कर उनके विचार जानें। उन विचारों से समाधान की ओर बढ़ें। यही सकारात्मक भाव साहित्य के उन्नयन में सहायक होगा।