संस्कारों से पोषित हमारे देश का बच्चा ए के फोर्टी सेवन नहीं मांगता बल्कि कहता है माँ खादी की चादर दे दे : डॉ विकास दवे

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भोपाल। उन्मेष अंतरराष्ट्रीय साहित्योत्सव के तृतीय दिवस में नीलांबरी सभागार में आयोजित सत्र ‘बच्चों के साहित्य का अनुवाद’, विषय पर केंद्रित था। सत्र की अध्यक्षता तपन बंदोपाध्याय ने की एवं आपने कहा कि बच्चों के मस्तिष्क में अद्भुत क्षमता होती है कि वो शब्दों को बहुत अच्छी तरह से समझ लेते हैं। अतः हम उन्हें ऐसा साहित्य परोसें जिसमें परिष्कृत भाषा का उपयोग हो। भारत में गीत – संगीत के लिए, नाट्यकला के लिए अलग अलग अकादमी हैं मगर बाल साहित्य के लिए कोई भी अकादमी नहीं है, जिसकी बहुत आवश्यकता है।

वरिष्ठ साहित्यकार दिविक रमेश ने कहा कि बाल साहित्य के प्रति उदासीनता हमें फिजी के अंतराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में भी देखने को मिली। आपने बताया कि मराठी और बंगाली में वृदह बाल साहित्य उपलब्ध है मगर हिन्दी में नहीं। इसलिए अब बाल साहित्य को सृजित एव अनुवादित करने की बहुत आवश्यकता है। आपने बताया कि उत्कृष्ट बाल साहित्य की पहचान होती है कि वो सृजनात्मक हो। साथ ही साथ मनुष्यता का विकास करे। अनुवाद करते समय ध्यान रखें कि भाषा की निजता खत्म न हो। आपने सुझाव दिया कि साहित्य अकादमी को भी बाल साहित्य की पुस्तकों का अनुवाद अन्य भाषाओं में करना चाहिए। साथ ही साथ मशीनी अनुवाद से बचना चाहिए और वो अनुवाद सिर्फ शाब्दिक अनुवाद न होकर, मूल अर्थ को संरक्षित करने वाली अभिव्यक्ति होनी चाहिए। आपने उन सुक जुंग की कविता, ‘घर का काम मिला है मुझको’ भी सुनाई।

साहित्य अकादमी मध्य प्रदेश के निदेशक एवं देवपुत्र के संपादक डॉ विकास दवे बताया कि यह सच है कि भारत में बाल साहित्य सबसे उपेक्षित विधा रही है, जबकि विदेशों में तो बाल साहित्य के लिए विश्वविद्यालय तक उपलब्ध हैं। भारत ने ही संपूर्ण विश्व को बसुधैव कुटुम्बकम का सूत्र दिया था अतः यहि भावना यदि भारतीय बाल साहित्यकार अपने सृजन में भी लाएं तो वो रचना वैश्विक स्तर पर लोगों तक पहुंच पाएगी। कुछ वर्ष पहले हमारे अनुवादपुरुष को हाथीपांव का रोग लगा था कि वो सिर्फ एक ही भाषा में अनुवाद करते जा रहे थे मगर नवीन शिक्षा नीति के आने के बाद अब अनुवाद को सार्वभौमिक बनाने के प्रयास हो रहे हैं और अब पुस्तकें विभिन्न भारतीय भाषाओं एवं आंचलिक भाषाओं में भी उपलब्ध होने जा रही हैं।

आपने बताया कि स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में अनुवाद करते समय नामकरण, देश, काल, परिस्थिति, सांस्कृतिक वातावरण एवं राजनीतिक व सामाजिक संदर्भ को भी यदि ध्यान में रखा जाता है तो अनुदित साहित्य की ग्राहिता, आत्मीयता एवं आनंदमूलकता बढ़ जाती है।अनुवाद की गंगा को बहाना चाहते हैं तो वह रसतत्व होना चाहिए जो गंगाजल में होता है और वह रसतत्व संस्कार का होता है। संस्कार के हनन को रोकने के लिए हमें बाह्य विकृतियों से बचाना चाहिए। पौराणिक आख्यान और अमरचित्र कथाओं से भी परिचित करवाना आवश्यक है। संस्कारों से पोषित हमारे देश का बच्चा ए के फोर्टी सेवन नहीं मांगता बल्कि कहता है माँ खादी की चादर दे दे। अतः अनुवाद भी ऐसा हो जो संस्कार पोषित करे व संस्कृति के निकट रहें।

तपन बंदोपाध्याय ने बताया कि अनुवाद भाषा का न करके ज्ञान का अनुवाद होना चाहिए। अतः हमें चाहिए कि वह आखरिक अनुवाद न हो, क्योंकि उससे तदात्म स्थापित नहीं किया जा सकता। अनुदित कृति को पढ़कर महसूस होना चाहिए कि वह मौलिक कृति ही है इसलिए जो अनल्ट्रांसलेटेवल तत्व हों उनको पहचान कर लक्ष्य भाषा से शब्द खोजना चाहिए ताकि सामाजिक मूल्य, धरोहर व मौलिक स्वरुप खत्म न हो। आपने धम्मक धम्मक आता हाथी का संस्कृत अनुवाद “धमक धमक गच्छति हस्ति” सुनाकर सभी की वाहवाही लूटी।

दिल्ली से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार रिषिराज ने बताया कि बाल साहित्य में नयी सोच लाने का वक्त है अतः अनुवाद ऐसे होने चाहिए कि जो संस्कृति संस्कार को संरक्षित कर अगली पीढ़ी को स्थानांतरित करने की योग्यता रखते हों। साथ ही साथ आपने कहा कि कथा कथन को भी मुख्य विधा के रूप में पहचान मिलना आवश्यक है।

केरल से पधारे टी विष्णुकुमारन ने बताया कि अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करने से ज्यादा समस्या द्रविड़ भाषा से या में अनुवाद करने में उत्पन्न होती है। लेकिन अनुवाद विहीन दुनिया की कल्पना असंभव है। हालांकि पाश्चात्य का प्रभाव बाल साहित्य पर ज्यादा देखा जा रहा है मगर भारत में आरंभ से ही अनेक बाल पत्रिकाओं जैसे चंदामामा, इंद्रजाल आदि बहुभाषाओं में उपलब्ध रहीं हैं। आपने कहा कि इन पत्रिकाओं ने बहुत से पात्रों को बच्चों का आदर्श पात्र बना दिया। इसलिए यह आवश्यक है कि जो भी बाल साहित्य से संबंधित सृजन और अनुवाद हो वो नैतिक मूल्यों को अवश्य ध्यान में रखें।

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