जब खाना बनाती हूँ न, तब तेरी तरह ही
नाप तोल का गणित बैठाती हूँ।
सीख से पलोथन में रोटी उलटते पलटते
भावों को आकार देती हूँ।
तेरी हिदायतों को धीमी आँच पर पका
तेरा हुनर सीख जाती हूँ।
तब मुझे आशीष देने तुम सपनों में आ जाती हो।
माँ! तुम बहुत याद आती हो….
जब अनजान राहों पर चलती हूँ न
तब तेरे पद चिन्हों को ढूँढती हूँ।
मंज़िल पर पहुँचने के लिए ख़ुद में
तेरे जज़्बे को टटोलती हूँ।
तब तेरे रक्त का प्रवाह ख़ुद में बहता पाती हूँ।
तब तुम मुझमें ही समा जाती हो।
माँ! तुम बहुत याद आती हो….
जीवन पथ पर जब धीरज रखना होता है
जब कोई कारज पूरा करना होता है न।
जब ख़ुद को तराशती हूँ, निखारती हूँ
जब परीक्षा में खरा उतरना होता है न।
तब तुम्हें सोचकर तुम्हारी तरह ख़ुद को ढालती जाती हूँ
तब मेरे आसपास ही हो तुम, यह अहसास दिलाती हो।
माँ! तुम बहुत याद आती हो….
#अनिता दीपक शर्मा
इंदौर